Lala Lajpat Rai death anniversary: अंग्रेजों की नाक में दम कर देने वाले शेर-ए-पंजाब लाला लाजपत राय के साहस की कहानी

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 17 Nov, 2024 11:31 AM

lala lajpat rai death anniversary

Lala Lajpat Rai death anniversary: लाल, पाल, बाल की क्रांतिकारी तिकड़ी में से एक ‘पंजाब केसरी’ के नाम से मशहूर लाला लाजपत राय का जन्म 28 जनवरी, 1865 को पंजाब में जगराओं के पास स्थित ढूढीके गांव में राधा कृष्ण जी के घर माता गुलाब देवी की कोख से हुआ।

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Lala Lajpat Rai death anniversary: लाल, पाल, बाल की क्रांतिकारी तिकड़ी में से एक ‘पंजाब केसरी’ के नाम से मशहूर लाला लाजपत राय का जन्म 28 जनवरी, 1865 को पंजाब में जगराओं के पास स्थित ढूढीके गांव में राधा कृष्ण जी के घर माता गुलाब देवी की कोख से हुआ। पिता जी अध्यापन का कार्य करते थे और शुद्ध विचारों वाले धार्मिक प्रवृत्ति के विद्वान व्यक्ति थे, जिनका पूरा प्रभाव बालक लाजपतराय पर पड़ा।

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लाला जी की उच्च शिक्षा लाहौर में हुई। वकालत पास करने बाद जब पिता जी का तबादला हिसार हो गया तो हिसार में ही वकालत के साथ-साथ समाजिक कार्यों में भी भाग लेने लगे। लोगों के साथ मेल-जोल और सामाजिक कार्यों के कारण कई वर्ष तक वहां म्युनिसिपल बोर्ड के अध्यक्ष बन कर जनता की सेवा करते रहे। वकालत में कड़ी मेहनत और ईमानदारी के कारण इन्हें काफी प्रसिद्धि भी मिली। मां-बाप से मिले संस्कारों के कारण बचपन से निडर और साहसी बने लाजपत राय ने देश को अंग्रेजों के चंगुल से मुक्त करवाने के लिए क्रांतिकारी गतिविधियों में हिस्सा लेना शुरू कर दिया, जिस पर अंग्रेजों ने इन्हें गिरफ्तार कर मांडले जेल में बंद कर दिया।

जेल से रिहाई के बाद 1914 में कांग्रेस के एक डैपुटेशन में इंगलैंड गए और वहां से जापान चले गए। परंतु इसी दौरान प्रथम विश्व युद्ध शुरू हो गया और अंग्रेज हकूमत ने इनके भारत आने पर रोक लगा दी। तब लाला जी जापान से अमरीका चले गए और वहां रहकर देश को आजाद करवाने के लिए प्रयास करने लगे। विश्व युद्ध की समाप्ति पर स्वदेश लौट कर देश को आजाद करवाने के लिए फिर से सक्रिय हो गए और उन दिनों चल रहे असहयोग आंदोलन में बढ़-चढ़ कर भाग लिया, जिससे कांग्रेस पार्टी में इनका कद बढ़ने लगा और एक वरिष्ठ नेता के रूप में उभर कर सामने आए।

इनकी वरिष्ठता के कारण ही इनको 1920 में कलकत्ता में हुए कांग्रेस के स्पैशल अधिवेशन में प्रधान चुन लिया गया। अब तो इन्होंने और ज्यादा सक्रियता से क्रांतिकारी गतिविधियों में हिस्सा लेना शुरू कर दिया और कई बार पकड़े भी गए। फिर क्रांतिकारियों के गढ़ लाहौर में आकर उच्च न्यायालय में वकालत करने लगे और पूरे जोश के साथ देश को आजाद करवाने के लिए स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े। अपने दयालु स्वभाव के कारण यहां भी वकालत के साथ-साथ गरीबों, पिछड़ों और जरूरतमंदों की सहायता आगे हो कर करने लगे और बंगाल में पड़े भयंकर अकाल में तो वहां के लोगों की सहायता के लिए स्वयं गांव-गांव घूमकर धन एकत्र किया। इनकी आवाज में इतनी गर्मी, जोश और कड़क थी कि माईक के बिना भी हजारों की भीड़ में सबसे पीछे वाले भी इनकी आवाज साफ सुन सकते थे।

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क्रांतिकारी गतिविधियों के साथ-साथ युवाओं को शिक्षित और देश भक्ति से ओत-प्रोत करने के लिए इन्होंने अपने पास से उस समय 40 हजार रुपए देकर अपने मित्र के सहयोग से लाहौर में ही दयानंद एंग्लो विद्यालय की स्थापना की। लाला जी हमेशा अंग्रेजों की दमनकारी नीतियों का विरोध करते थे और यही कारण था कि 1928 में देशवासियों की भावनाओं को कुचलने वाला काला कानून लादने की अंग्रेजों की कोशिश का जब पूरे देश में जबरदस्त विरोध हो रहा था तो 63 वर्षीय लाजपत राय जी ने लाहौर में विरोध की कमान खुद संभाल ली। 30 अक्तूबर के दिन साइमन कमीशन के लाहौर पहुंचने पर लाला जी के नेतृत्व में हजारों देशवासियों ने विशाल जलूस निकाल कर स्टेशन पर कमीशन का ‘साइमन गो बैक’ के नारों से विरोध किया। इस विरोध से व्याकुल होकर पुलिस कप्तान स्काट ने लाठीचार्ज का आदेश देकर स्वयं भी लाला जी पर लाठियां बरसाई, जिससे लाला जी बुरी तरह से घायल हो गए।

घायल होने के बावजूद लाला जी ने जनसभा को संबोधित करते हुए घोषणा की कि ‘मेरे बदन पर पड़ी एक-एक लाठी अंग्रेजी हकूमत के राज के ताबूत में आखिरी कील साबित होगी’ और वही हुआ भी  लालाजी के बलिदान के 20 साल के भीतर ही ब्रिटिश साम्राज्य का सूर्य अस्त हो गया। आखिर 17 नवम्बर, 1928 को स्वतंत्रता संग्राम के हवन रूपी यज्ञ में लाला जी ने अपने प्राणों की आहुति डाल दी। लाला जी की मृत्यु से सारा देश उत्तेजित हो उठा और चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव व अन्य क्रांतिकारियों ने लालाजी पर जानलेवा लाठीचार्ज का बदला लेने का निर्णय किया। इन देशभक्तों ने अपने प्रिय नेता की हत्या के ठीक एक महीने बाद अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर ली और 17 दिसम्बर, 1928 को ब्रिटिश पुलिस अफसर सांडर्स को गोली से उड़ा दिया। लालाजी की मौत के बदले सांडर्स की हत्या के मामले में ही राजगुरु, सुखदेव और भगत सिंह को फांसी की सजा सुनाई गई।

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