Laxman Nayak death anniversary: ‘आदिवासियों के गांधी’ लक्ष्मण नायक को उनकी पुण्यतिथि पर नमन

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 29 Mar, 2023 07:27 AM

laxman nayak death anniversary

आजादी के संघर्ष में अपना जीवन अर्पित करने वाले कुछ बहादुरों को तो उचित पहचान मिली, जबकि कई अन्य लगभग गुमनामी में रह गए। देश की आजादी की लड़ाई में

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Laxman Nayak death anniversary: आजादी के संघर्ष में अपना जीवन अर्पित करने वाले कुछ बहादुरों को तो उचित पहचान मिली, जबकि कई अन्य लगभग गुमनामी में रह गए। देश की आजादी की लड़ाई में न जाने कितने देशवासियों ने खुद को बलिवेदी पर चढ़ा दिया। ऐसे ही साहस और समर्पण की कहानियां हमारे देश के जंगलों में भी छिपी हुई हैं। ओडिशा में जन्मे शहीद लक्ष्मण नायक एक ऐसे स्वतंत्रता सेनानी हैं, जिन्हें दुर्भाग्य से वर्तमान पीढ़ी भूल गई है।

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What is the life history of Laxman Nayak: लक्ष्मण नायक का जन्म 22 नवंबर, 1899 को कोरापुट जिले में मलकानगिरी के टेंटुलीगुमा में हुआ था। इनके पिता पदलम नायक भूयान जनजाति से संबंध रखते थे। लक्ष्मण जातिवाद और छुआछूत में कभी विश्वास नहीं करते थे। इनके गोत्र के लोगों को दूसरे समुदाय के साथ खाने की अनुमति नहीं थी, फिर भी यह अक्सर अपने सबसे अच्छे दोस्त भालू के साथ अपने पिता से सलाह लिए बिना भोजन करते थे। ये सच्चे अर्थों में एक समाज-सुधारक थे, जिन्होंने अपने क्षेत्र में आदिवासियों को गहन अंधविश्वासों से छुटकारा दिलाने में मदद करने के लिए लगातार प्रयास किया। गांव में कोई स्कूल या अस्पताल नहीं था और लगभग हर ग्रामीण निरक्षर था। इन सबके बावजूद लक्ष्मण के पिता ने इन्हें पढ़ना-लिखना सिखाया।

स्थानीय ब्रिटिश पुलिस और अधिकारियों द्वारा गरीब आदिवासी ग्रामीणों पर अत्याचार देखकर लक्ष्मण के दिल को कभी शांति नहीं मिली। ब्रिटिश पुलिस और अधिकारी भारी करों (टैक्सों) के माध्यम से गरीब लोगों से धन लूट कर एक भव्य जीवनशैली जीते थे, उन्होंने गरीब और कमजोर आदिवासियों को भी अपने महलों, खेतों में मुफ्त में काम करने के लिए मजबूर कर दिया था। समय बीतने के साथ लक्ष्मण ने आदिवासी हर्बल दवा की कला में महारत हासिल कर ली और आदिवासी पुजारी के रूप में काम करना शुरू कर दिया। इन्होंने कोया जनजाति के अपने एक मित्र चंद्र कुटिया से बंदूक चलाना भी सीख लिया।

1930 में इनके पिता की मृत्यु के बाद इन्हें प्रधान नियुक्त किया गया। ग्राम प्रधान के रूप में ये हर कठिन परिस्थिति में हमेशा अपने लोगों के साथ खड़े रहते, जिससे इनकी लोकप्रियता और भी बढ़ गई। इनके आसपास के गांवों के लोग अक्सर बीमारियों के उपचार और पूजा करने के लिए इनकी मदद मांगते थे।

अंग्रेजी सरकार की बढ़ती दमनकारी नीतियां जब भारत के जंगलों तक भी पहुंच गईं और जंगल के दावेदारों से ही उन की संपत्ति पर लगान वसूला जाने लगा, तो नायक ने अपने लोगों को संगठित करने का अभियान शुरू करके अंग्रेजों के खिलाफ एक क्रांतिकारी गुट तैयार किया। कांग्रेस ने भी इनकी बढ़ती याति को देख कर इनके साथ संपर्क कर अपने साथ जोड़ लिया।

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अब ये कांग्रेस की सभाओं और ट्रेनिंग सैशन्स में भाग लेने लगे और गांधी जी के संपर्क में आए। गांधी जी द्वारा देश की आजादी के लिए किए जा रहे कार्यों से ये काफी प्रभावित हुए। इनके दिल में राष्ट्रवाद की भावना जागृत होने लगी। इसके बाद ये न केवल आदिवासियों के लिए, अपितु सभी देशवासियों के लिए सोचने लगे। गांधीवादी अहिंसा की नीति ने लक्ष्मण को इतना प्रभावित किया कि उन्होंने अपने जीवन के हर क्षेत्र में उनके सभी सिद्धांतों का सख्ती से पालन करना शुरू कर दिया।  

ये गांधी जी का चरखा साथ लेकर आदिवासी गांवों में एकता व शिक्षा के लिए लोगों को प्रेरित करने लगे। इन्होंने ग्रामीण इलाकों में बदलाव लाने में अहम भूमिका निभाई। उनके द्वारा किए जा रहे समाज हित कार्यों के कारण बहुत से लोग इन्हें ‘मलकानगिरी का गांधी’ भी कह कर पुकारने लगे थे। इस क्षेत्र में आदिवासी आंदोलन के बढ़ने के कारण एक अभूतपूर्व जन-जागृति पैदा हुई।
अगस्त 1942 में शुरू हुए भारत छोड़ो आंदोलन का हिस्सा बनकर इन्होंने कई क्षेत्रों में कार्यक्रमों के आयोजन का जिम्मा लिया। इसी क्रम में  21 अगस्त, 1942 को एक बड़े पैमाने पर जुलूस की योजना बनाई गई थी, जिसका समापन कोरापुट के मैथिली पुलिस स्टेशन के शीर्ष पर तिरंगा फहराने के साथ होना था। लेकिन जैसे ही जुलूस नायक की अगुवाई में पुलिस स्टेशन पहुंचा, पुलिस बल ने शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे प्रदर्शनकारियों की अंधाधुंध पिटाई शुरू कर दी, फिर उन पर गोलीबारी भी की, जिसमें 5 लोगों की मौत और 17 अन्य घायल हुए।

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जुलूस पर पुलिस की अंधाधुंध पिटाई में लक्ष्मण नायक को भी गंभीर चोट आईं। पुलिस ने न केवल इन्हें बेरहमी से पीटा बल्कि इनकी मूछें तक जला दीं, जिससे लक्ष्मण बेहोश हो गए। घंटों के बाद होश आया तो कई किलोमीटर पैदल चलकर जयपुर पहुंचे। पुलिस से बचने के लिए यहां से ये रामगिरि पहाड़ियों पर चले गए लेकिन पुलिस द्वारा ग्रामीणों पर बार-बार हमले करने की खबर मिलते ही अपने गांव लौट आए।

2 सितंबर, 1942 को अधिकारियों ने उन्हें फॉरेस्ट गार्ड, जी. रमैया की हत्या के मामले में झूठा फंसाकर गिरफ्तार कर लिया। हालांकि, लक्ष्मण ने अदालत को बताया कि पुलिस फायरिंग के दौरान लगी गोली की चोटों के कारण ही रमैया की मौत हुई, परंतु कोरापुट के अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश वी. रामनाथन ने इन्हें लोगों को आगजनी, दंगों और रमैया की पिटाई के लिए उकसाने का दोषी ठहराया और मौत की सजा सुनाई। 29 मार्च, 1943 को इन्हें फांसी पर लटका दिया गया। अपने अंतिम समय में इन्होंने बस इतना ही कहा था- ‘‘यदि सूर्य सत्य है और चंद्रमा भी है, तो यह भी उतना ही सच है कि भारत स्वतंत्र होगा।’’ इनके सम्मान में 1989 में एक डाक टिकट जारी किया गया। 

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