Edited By Niyati Bhandari,Updated: 26 Apr, 2024 08:08 AM
समय सदा एक सा नहीं रहता। हम जिसकी कल्पना भी नहीं कर सकते, आने वाला समय वही दिखा देता है। धन-संपदा की प्राप्ति के लिए लक्ष्मी पूजन की परम्परा हमारे यहां है, परन्तु धन के रक्षक या देवता माने जाने वाले कुबेर अब सिर्फ
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Lord kubera story: समय सदा एक सा नहीं रहता। हम जिसकी कल्पना भी नहीं कर सकते, आने वाला समय वही दिखा देता है। धन-संपदा की प्राप्ति के लिए लक्ष्मी पूजन की परम्परा हमारे यहां है, परन्तु धन के रक्षक या देवता माने जाने वाले कुबेर अब सिर्फ तस्वीरों तक ही सीमित होकर रह गए हैं। इनकी प्राचीन प्रतिमाएं अभी भी हमारे संग्रहालयों की धरोहर हैं परन्तु सामान्य चलन में इनकी प्रतिमाएं या मंदिर कहीं नहीं दिखते। हम यदि अपने देश के महत्वपूर्ण मंदिरों एवं देवालयों की सूची पर नजर डालें तो यह कह पाना बहुत मुश्किल होगा कि कुबेर का कोई विशेष मंदिर भी कहीं है। अपने पौराणिक ग्रंथों की बात करें तो मत्स्य पुराण में इनका वर्णन कुछ इन शब्दों में मिलता है :
कुबेर को धनपति, धनद, वैश्रवण, अलकापति आदि नामों से पुकारा गया है। हमारे यहां जो दस दिशाएं मानी जाती हैं, उन दिशाओं के लिए अलग-अलग दिकपाल भी माने जाते हैं। इन दिकपालों अर्थात दिशा के स्वामियों की सूची के नामों और संख्या में बदलाव देखा जाता है, परन्तु इनमें से इंद्र, वरुण, यम और अग्नि को प्राचीनतम समझा जाता है।
कुबेर के कुल की बात करें तो इन्हें पुलस्त्य ऋषि का पौत्र और विश्रवा का पुत्र माना गया है। उल्लेखनीय है कि इन्हीं विश्रवा का एक पुत्र लंकाधिपति रावण भी था। इस नाते रावण और कुबेर आप में सौतेले भाई थे। इसी कुबेर को सोने की लंका स्थापित करने और वहां का अधिपति होने का गौरव प्राप्त था, परन्तु रावण ने लंका पर जबरदस्ती कब्जा जमा लिया, जिसके बाद कुबेर ने जो दूसरा नगर बसाया, उसे अलकापुरी नाम दिया गया और इसी अलकापुरी के अधिपति होने के नाते उनका नामकरण अलकापति भी हुआ।
कुबेर को उत्तर दिशा का अधिपति माना जाता है परन्तु एक अन्य परम्परा के अंतर्गत यह स्थान सोम को दिया जाता है। वैसे कुबेर शब्द का अर्थ कुछ यूं वर्णित है : कुत्यितं बेरं यस्य स: कुबेर:
अर्थात जो निम्न और भोंडा है, वह कुबेर है। इसी कारण से प्रतिमा शास्त्रों में इनका वर्णन मोटे या थुलथुले शरीर वाला परन्तु धन के स्वामी के नाते एक हाथ में स्वर्ण मुद्राओं की थैली लिए और दूसरे हाथ में नेवला लिए दिखाया जाता है। ‘मनुस्मृति’ जैसे ग्रंथों में इन्हें लोकपालों में से एक लोकपाल के साथ ही धनपतियों के संरक्षक जैसा सम्मानजनक स्थान दिया गया है।
महाभारत के वर्णन को मानें तो यहां इन्हें पुलस्त्य का पुत्र माना गया है परन्तु पुराणों में इन्हें पुलस्त्य का पौत्र और विश्रवा तथा देववर्णिनी की संतान माना गया है। इस देववर्णिनी के पिता हैं ऋषि भारद्वाज तथा भ्राता हैं ऋषि गर्ग। वहीं विश्रवा की दूसरी पत्नी असुर राजकुमारी कैकेशी से जो चार संतानें हुईं उनके नाम हैं रावण, विभीषण, कुंभकर्ण और शुर्पणखा।
कुबेर को यक्ष, किन्नर, गुह्यक और गंधर्वों का अधिपति भी माना गया है। वाल्मीकि रामयाण में इस देवता का एक अन्य नाम ‘एकाक्ष’ भी मिलता है। इन्हें भगवान शिव का मित्र और स्नेही होने का गौरव भी प्राप्त है। पौराणिक ग्रंथ ‘ललित विस्तर’ में इनकी गणना पूज्य देवताओं की सूची में है। ‘प्रतिमा शास्त्र’ के अनुसार थुलथुले शरीर वाले कुबेर के माथे पर उष्णीय, कानों में कुंडल तथा गले में कंठहार रहता है।
कुछ मूर्तियों में कुबेर का दाहिना हाथ अभय मुद्रा में तथा बाएं हाथ में नेवले के आकार की धन की थैली रहती है। इसे नकुली या नकुलक कहा जाता था। कुबेर की पत्नी का नाम भद्रा है, अत: कुछ प्रतिमाओं में कुबेर के साथ कमलधारिणी भद्रा को दर्शाया गया है। कुषाण काल में कुबेर की प्रतिमाओं के साथ भद्रा और लक्ष्मी का भी अंकन मिलता है। जैन धर्म में कुबेर को ‘सर्वनाभूति’ नाम दिया गया है जिन्हें 19वें तीर्थकर मल्लीनाथ का सहायक यक्ष माना गया है। इनके वाहन की बात करें तो इन्हें हाथी या मनुष्य की सवारी करते अंकित किया जाता है।
बौद्ध धर्म में जिस देवता जंभल का वर्णन है, उन्हें यूं तो कुबेर का ही बौद्ध स्वरूप माना जाता है परन्तु कुछ विद्वानों का मानना है कि जंभल और सर्वानुभूति में अधिक निकट साम्यता है। जैन धर्म में जहां सर्वानुभूति को मल्लीनाथ से संबद्ध समझा जाता है, वहीं बौद्ध धर्म में जंभल को ‘अक्षोभ्य’ तथा ‘रत्नसंभव’ से संबद्ध किया जाता है। इन्हें बौद्धों का धनपति माना जाता है। कुबेर की तरह ही इनके पास भी धन की थैली होती है। अलबत्ता सामने रखे घटपात्र की स्थिति थोड़ी भिन्न होती है। कुबेर के सामने रखा मुद्राओं से भरा घटपात्र कलश की तरह सीधा रहता है जबकि जंभल के सामने का घटपात्र अधोमुख होता है जिससे धनराशि निकलती हुई दिखाई पड़ती है।