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Mahabharat: जब सेनापति हुआ द्रौपदी के रूप-लावण्य पर मोहित...

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 06 Apr, 2025 12:57 PM

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Mahabharat agyatvas story: कौरवों के हाथों जुए में पराजित होकर पांडव शर्त के अनुसार बारह वर्ष का वनवास समाप्त करके राजा विराट के यहां वेष बदल कर एक वर्ष का अज्ञातवास कर रहे थे। युधिष्ठिर कङ्क, भीमसेन बल्लव, अर्जुन वृहन्नला, नकुल ग्रंथिक, सहदेव...

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Mahabharat agyatvas story: कौरवों के हाथों जुए में पराजित होकर पांडव शर्त के अनुसार बारह वर्ष का वनवास समाप्त करके राजा विराट के यहां वेष बदल कर एक वर्ष का अज्ञातवास कर रहे थे। युधिष्ठिर कङ्क, भीमसेन बल्लव, अर्जुन वृहन्नला, नकुल ग्रंथिक, सहदेव तंतिपाल नाम से कार्य करते थे और द्रौपदी सैरंध्री के रूप में महारानी सुदेष्णा की सेवा करती थीं।

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राजा विराट का साला सेनापति कीचक सैरंध्री के रूप-लावण्य पर मोहित होकर उसे पाने के लिए सदैव प्रयास में लगा रहता था। विरोध करने पर वह देवी द्रौपदी का अपमान भी किया करता था। द्रौपदी से यह सुनकर महाबलि भीमसेन ने पहले कीचक को और फिर कीचक के भाइयों को मार गिराया।

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कौरवों के गुप्तचर चारों ओर पांडवों का पता लगा रहे थे। पांडवों का पता न पाकर उन बेचारों ने लौट कर दुर्योधन से कहा, ‘‘राजन, हम लोगों ने दिन-रात एक करके जगह-जगह पांडवों की खोज की, परंतु कहीं भी उनका पता नहीं लगा। मालूम होता है कि वे बिल्कुल नष्ट हो गए। आनंद का समाचार यह भी है कि कीचक अपने भाइयों सहित रात्रि में गुप्त रूप से गंधर्वों के द्वारा मारा गया है।’’

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कौरव आपस में विचार-विमर्श करने लगे। कोई कुछ कहता था, कोई कुछ। द्रोणाचार्य ने यह स्पष्ट कह दिया कि पांडव न तो नष्ट हो सकते हैं न तिरस्कृत क्योंकि वे शूरवीर, विद्वान, बुद्धिमान, जितेंद्रिय और कृतज्ञ हैं। सभासदों ने कहा, ‘‘पांडवों के अज्ञातवास के तेरहवें वर्ष में थोड़े ही दिन शेष रह गए हैं। यदि वह पूरा हो गया तो वे मदमाते हाथी और विषधर सर्पों के समान क्रोधातुर होकर कौरवों के लिए दुखदायी हो जाएंगे।’’

मत्स्य देश में पांडवों के होने का अनुमान लगाकर त्रिगर्त देश के राजा महाबलि सुशर्मा ने राजा विराट पर चढ़ाई कर दी। राजा विराट की कुछ गौओं पर अपना अधिकार करके वह उन्हें ले जाने लगा। समाचार पाकर राजा विराट अर्जुन को छोड़कर अन्य पांडवों को साथ ले गौओं को बचाने चले गए।

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इधर दूसरे दिन दुर्योधन भी अपनी सेना सहित विराट नगर पर चढ़ आया। भीष्म, द्रोण, कर्ण, कृपाचार्य, अश्वत्थामा, शकुनि, दुशासन, विकर्ण, चित्रसेन, दुर्मुख तथा और भी अनेक महारथी दुर्योधन के साथ थे। वे सब कौरव वन में चरती राजा विराट की 60000 गौओं को सब ओर से रथों की पंक्ति से रोक कर ले चले।

गौओं को कौरव उतावली से हांक कर ले जा रहे थे, इसे देख कर ग्वालों ने विरोध किया परन्तु विशाल सेना के सामने निहत्थे ग्वाले भला क्या करते? ग्वालों का सरदार रथ पर चढ़कर राजमहल पहुंचा, वहां केवल राजकुमार उत्तर थे।

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उसने राजकुमार से कहा, ‘‘राजकुमार, आपकी 60000 गौओं को कौरव लिए जा रहे हैं। महाराज की अनुपस्थिति में आप तुरंत ही गौओं को छुड़ाने के लिए जाइए।’’

राजकुमार अंत:पुर में बैठे थे। उनके पास कोई सारथि नहीं था। सैरंध्री के परामर्श से वृहन्नला बने अर्जुन सारथि बनकर चले। रास्ते में तो उत्तर बड़ा प्रसन्न था लेकिन कौरवों को देखते ही उसके रौंगटे खड़े हो गए। वह सारी मान-मर्यादाओं को तिलांजलि देकर धनुष-बाण फैंककर भागने लगा।

अर्जुन ने अपना परिचय देकर उसे साहस बंधाया। फिर उत्तर को सारथि बनाकर कौरवों से गौओं को छुड़ा लिया। उधर सुशर्मा भी गौओं को वश में करने के साथ ही साथ राजा विराट को अपने रथ में डालकर ले जाने लगा परन्तु युधिष्ठिर आदि के रहते यह कैसे संभव हो सकता था।

युधिष्ठिर जी ने भीम को झटपट राजा विराट को छुड़ाने की आज्ञा दी। इधर युधिष्ठिर, नकुल व सहदेव भी सुशर्मा के साथ आई सेना का वध करने लगे। भीम के आगे सुशर्मा भला कैसे ठहरता ! उसे बंदी बनाकर भीम ने युधिष्ठिर के सामने लाकर खड़ा कर दिया। क्षमाशील युधिष्ठिर जी ने ‘फिर ऐसा साहस मत करना’ ऐसा कह कर उसे प्राण दान दे दिया।

 

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