Edited By Prachi Sharma,Updated: 29 Jun, 2024 06:51 AM
शेर-ए-पंजाब के नाम से प्रसिद्ध महाराजा रणजीत सिंह पहले ऐसे राजा थे, जिन्होंने न केवल पंजाब को एकजुट किया बल्कि अपने जीते-जी अंग्रेजों को अपने साम्राज्य के पास फटकने भी नहीं दिया। रणजीत
शास्त्रों की बात, जानें धर्म के साथ
Maharaja Ranjit Singh Death Anniversary: शेर-ए-पंजाब के नाम से प्रसिद्ध महाराजा रणजीत सिंह पहले ऐसे राजा थे, जिन्होंने न केवल पंजाब को एकजुट किया बल्कि अपने जीते-जी अंग्रेजों को अपने साम्राज्य के पास फटकने भी नहीं दिया। रणजीत सिंह सहस्राब्दी में पहले भारतीय थे जिन्होंने आक्रमण की लहर को भारत के पारंपरिक विजेताओं, पश्तूनों (अफगानों) की मातृभूमि में वापस मोड़ दिया। उनका राज्य उत्तर-पश्चिम में खैबर दर्रे से लेकर पूर्व में सतलुज नदी तक और भारतीय उपमहाद्वीप की उत्तरी सीमा पर कश्मीर क्षेत्र से लेकर दक्षिण में थार रेगिस्तान तक फैला हुआ था। हालांकि वह अशिक्षित थे, लेकिन लोगों और घटनाओं के चतुर न्यायाधीश थे, धार्मिक कट्टरता से मुक्त थे और अपने विरोधियों के साथ नर्म व्यवहार करते थे।
रणजीत सिंह का जन्म 13 नवम्बर, 1780 को बुदरूखां या गुजरांवाला में (अब पाकिस्तान में) जाट सिख परिवार में महाराजा महा सिंह के घर इकलौती संतान के रूप में हुआ था। उन दिनों पंजाब पर सिख और अफगानों का राज चलता था, जिन्होंने पूरे इलाके को कई मिसलों में बांट रखा था। रणजीत के पिता महा सिंह सुकरचकिया मिसल के कमांडर थे जिसका मुख्यालय पश्चिमी पंजाब में स्थित गुजरांवाला में था।
छोटी उम्र में चेचक की वजह से महाराजा रणजीत सिंह की एक आंख की रोशनी चली गई थी। 1792 में जब वह मात्र 12 वर्ष के थे तो पिता चल बसे और राजपाट का सारा बोझ उन्हीं के कंधों पर आ गया। 12 अप्रैल, 1801 को रणजीत सिंह ने महाराजा की उपाधि ग्रहण की। उन्होंने लाहौर को अपनी राजधानी बनाया और 1802 में अमृतसर की ओर रुख किया। 15 साल की उम्र में उन्होंने कन्हैया के सरदार की बेटी से शादी की। दूरदर्शी और सांवले रंग के नाटे कद के रणजीत सिंह में सैनिक नेतृत्व के बहुत सारे गुण थे। तेजस्वी रणजीत सिंह जब तक जीवित रहे, सभी मिसलें दबी थीं।
महाराजा रणजीत ने अफगानों के खिलाफ कई लड़ाइयां लड़ीं और उन्हें पश्चिमी पंजाब की ओर खदेड़ते हुए पेशावर समेत पश्तून क्षेत्र पर अधिकार कर लिया। यह पहला अवसर था जब पश्तूनों पर किसी गैर-मुस्लिम ने राज किया। उसके बाद उन्होंने पेशावर, जम्मू कश्मीर और आनंदपुर पर भी अधिकार कर लिया। उन्होंने गुरुओं, सिख नेताओं की श्रद्धेय पंक्ति के नाम पर सिक्के चलवाए। एक साल बाद उन्होंने धार्मिक नगर अमृतसर पर कब्जा कर लिया, जो उत्तर भारत का सबसे महत्वपूर्ण वाणिज्यिक केंद्र था। इसके बाद, उन्होंने पंजाब में फैली छोटी सिख और पश्तून रियासतों को अपने अधीन करना शुरू कर दिया।
उनकी सरपरस्ती में पंजाब अब बहुत शक्तिशाली सूबा था। इनकी ताकतवर सेना ने लम्बे अर्से तक ब्रिटेन को पंजाब हड़पने से रोके रखा। एक ऐसा मौका भी आया जब पंजाब ही एकमात्र ऐसा सूबा था, जिस पर अंग्रेजों का कब्जा नहीं था।
महाराजा रणजीत खुद अनपढ़ थे, लेकिन उन्होंने अपने राज्य में शिक्षा और कला को बहुत प्रोत्साहन दिया। उन्होंने पंजाब में कानून एवं व्यवस्था कायम की और कभी किसी को मृत्युदंड नहीं दिया। उन्होंने जनता से वसूले जाने वाले जजिया पर भी रोक लगाई।
उन्होंने अमृतसर के हरमंदिर साहिब में संगमरमर और सोना मढ़वा कर पुनरुद्धार कराया। तभी से उसे स्वर्ण मंदिर कहा जाने लगा। मंदिरों को मनों सोना भेंट करने के लिए वह प्रसिद्ध थे। 1835 में महाराजा रणजीत सिंह ने काशी विश्वनाथ मंदिर के ऊपरी भाग पर सोने का स्वर्ण पत्र जड़वाया। दिसम्बर 1809 में वह लघु हिमालय (जो अब पश्चिमी हिमाचल प्रदेश राज्य है) में कांगड़ा के राजा संसार चंद की सहायता के लिए गए और आगे बढ़ रहे घुरका बल को हराने के बाद कांगड़ा को अपने कब्जे में कर लिया। 1812 में पंजाब पर महाराजा रणजीत सिंह का एकछत्र राज्य था। उन्होंने दस वर्ष में मुल्तान, पेशावर और कश्मीर तक अपने राज्य को बढ़ा लिया।
रणजीत सिंह की सभी विजयें सिखों, मुसलमानों और हिंदुओं से बनी पंजाबी सेनाओं द्वारा हासिल की गई थीं। उनके कमांडर भी अलग-अलग धार्मिक समुदायों से थे। 1820 में रणजीत सिंह ने पैदल सेना और तोपखाने को प्रशिक्षित करने के लिए यूरोपीय अधिकारियों का इस्तेमाल करके अपनी सेना का आधुनिकीकरण करना शुरू किया।
महाराजा रणजीत सिंह के खजाने की रौनक बहुमूल्य हीरा कोहिनूर था। लगातार लड़ाइयां लड़ते उदार हृदय रणजीत सिंह अस्वस्थ हो रहे थे। 1838 में लकवे का आक्रमण हुआ और बहुत उपचार के बाद भी उन्हें बचाया नहीं जा सका और 27 जून, 1839 को उनका निधन हो गया। उनकी समाधि लाहौर में बनवाई गई जो आज भी कायम है।