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Maharishi Dayanand Saraswati: अगर महर्षि दयानंद सरस्वती की बातों पर जमाना चला होता तो...

Edited By Sarita Thapa,Updated: 23 Feb, 2025 10:30 AM

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Maharishi Dayanand Saraswati: अगर ऋषिवर की बातों पर जमाना चल गया होता तो शायद विकृतियों की जिस आंधी से हम भारतीय आज जूझ रहे हैं, वह कभी आती ही नहीं और भारतीय जन-समाज में व्याप्त होकर इसे खोखला बनाने वाला जाति-पाति का तूफान भी कब का थम गया होता।

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Maharishi Dayanand Saraswati: अगर ऋषिवर की बातों पर जमाना चल गया होता तो शायद विकृतियों की जिस आंधी से हम भारतीय आज जूझ रहे हैं, वह कभी आती ही नहीं और भारतीय जन-समाज में व्याप्त होकर इसे खोखला बनाने वाला जाति-पाति का तूफान भी कब का थम गया होता। सन् 1837 में महाशिवरात्रि के दिन जो दिव्य ज्योति बालक मूलशंकर के दिल में जगी, उसने उसे महर्षि दयानंद सरस्वती बना दिया और उन्हीं ने सन् 1875 में आर्य समाज की स्थापना से प्राचीन वैदिक संस्कृति को पुनर्जीवित किया। इसी दिव्य ज्योति ने भारत को एकता के सूत्र में पिरोया।

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यदि हम आर्य समाज की स्थापना से 18 वर्ष पीछे जाएं तो सन् 1857 के विद्रोह के बीज डालने वाले मुख्य सूत्रधारों में महर्षि जी की महत्वपूर्ण भूमिका किसी से छिपी दिखाई नहीं देती। देश को आजाद करने के लिए अपना बलिदान देने वालों में लगभग 80 प्रतिशत स्वतंत्रता सेनानी महर्षि दयानंद सरस्वती जी के अनुगामी और आर्य समाजी ही थे।

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    अपने दूरगामी दृष्टिकोण से उन्होंने आर्य समाज की स्थापना के समय 10 नियम स्थापित किए। वे नियम आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं, जितने उस समय थे।आज जब आर्य समाज विभिन्न शिक्षा संस्थाओं के माध्यम से महर्षि के विचारों को राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक पहुंचाने के लिए लगातार प्रयास कर रहा है और अनेकानेक विद्यालयों, गुरुकुलों, डी.ए.वी. महाविद्यालयों और विश्वविद्यालय के माध्यम से इस कार्य को पूरा करने हेतु सतत् प्रयासरत है; हम गर्व से कह सकते हैं कि इन शिक्षण संस्थानों से निकले हमारे छात्र लगभग प्रत्येक संस्था में और प्रत्येक क्षेत्र में महर्षि जी के विचारों को सारगर्भित रूप देने में जुटे हुए हैं।
    परंतु हमारा दुर्भाग्य यह है कि जिस गति से यह कार्य संपन्न होना चाहिए था, उससे हम भारतीय कहीं न कहीं भटक गए हैं।
    आज भी हम ऊंच-नीच, जाति-पाति की जंजीरों से बंधे हुए हैं और मुक्ति की कोई राह दिख नहीं रही।   
         
    ऋषिवर दयानंद सरस्वती जी का आज आत्मिक जन्मदिवस एवं बोधपर्व मनाने वालो! जरा रुको, सुनो, समय की पुकार को। सच तो यह है कि हमें अपने आप को पुन: उस महान दृष्टा एवं युगप्रणेता के प्रति समर्पित करना होगा, अन्यथा पेड़ से गिरे फूलों की तरह हमारा अस्तित्व भी धूल में मिल जाएगा। कहते हैं, चीनी यात्री ह्यूनसांग जब भारत आया, तो उसने लगभग 3 वर्ष तक भारत वासियों की प्रवृत्तियों का अध्ययन किया और भारतीयों का यशोगान करते हुए कहा कि भारतीय लोग बहुत मेहनती होते हैं; धर्म के प्रति उनकी आस्था भी बहुत होती है, परंतु उनमें बस एक ही कमी है और वह यह कि वे अपनी गलती से कभी कुछ सीखते नहीं हैं।

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    आज भी यदि हम अपनी दुर्दशा से कुछ न सीख पाए तो हमारा मानव के रूप में जन्म लेना बेकार ही जाएगा। आज आवश्यकता इस बात की है कि ऋषि बोध उत्सव को उत्सव की तरह न मना कर उस महामना के विचारों को पुन: सजगता, कृतज्ञता एवं समर्पण भाव से पढ़ें, सुनें और मनन करें। समाज के ढांचे को ध्वस्त कर रहे पारिवारिक विखंडन को रोकें। नई पीढ़ी में अनुशासनहीनता, आत्महत्या, क्रोध, नशाखोरी आदि के जो दुर्बीज दिखाई दे रहे हैं, उनका एकमात्र कारण घरों में होने वाले यज्ञ-हवन के प्रति हमारी विमुखता है, इसलिए वेदों की ओर लौटते हुए हवन-यज्ञ के प्रति हमारी नई पीढ़ी को सजग बनाएं।

    इससे न केवल हमारे बच्चों में संयम और आत्मसंयम का भाव बढ़ेगा बल्कि पर्यावरण के प्रति जिम्मेदारी का बोध भी होगा।
    आज आवश्यकता इस बात की है कि अपनी संस्कृति को बचाकर भारतीय मूल्यों को पुनर्जागृत किया जाए। ‘कृण्वंतो विश्वमार्यम’ को सार्थकता देते हुए भारत को पुन: विश्वगुरु बनाने की दिशा में कदम आगे बढ़ाए जाएं। हमारा बोधपर्व मनाना तभी सार्थक होगा, जब हम ऋषिवर दयानंद सरस्वती जी के दिखाए मार्ग पर चलें, जातिवाद की झूठी जंजीरों को तोड़कर हर तरफ एक सकारात्मक आत्मबोध विकसित करें, ताकि हमारी आने वाली पीढ़ियां गर्व से कह सकें-
    अंधेरों का उजाला था,
    मेरा दयानंद निराला था,
    हम तो उलझे थे तूफानों में,
    उसी ने हमें तूफानों से निकाला था।

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