Edited By Niyati Bhandari,Updated: 05 Mar, 2020 08:48 AM
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महर्षि वशिष्ठ की उत्पत्ति का वर्णन पुराणों में विभिन्न रूपों में प्राप्त होता है। कहीं ये ब्रह्मा के मानस पुत्र, कहीं मित्रावरुण के पुत्र और कहीं अग्रिपुत्र कहे गए हैं। इनकी पत्नी का नाम अरुन्धति देवी था। जब इनके पिता
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महर्षि वशिष्ठ की उत्पत्ति का वर्णन पुराणों में विभिन्न रूपों में प्राप्त होता है। कहीं ये ब्रह्मा के मानस पुत्र, कहीं मित्रावरुण के पुत्र और कहीं अग्रिपुत्र कहे गए हैं। इनकी पत्नी का नाम अरुन्धति देवी था। जब इनके पिता ब्रह्मा जी ने इन्हें मृत्यु लोक में जाकर सृष्टि का विस्तार करने तथा सूर्यवंश का पौरोहित्य कर्म करने की आज्ञा दी, तब इन्होंने पौरोहित्य कर्म को अत्यंत निंदित मानकर उसे करने में अपनी असमर्थता व्यक्त की।
ब्रह्मा जी ने इनसे कहा, ‘‘इसी वंश में आगे चल कर मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम अवतार ग्रहण करेंगे और यह पौरोहित्य कर्म ही तुम्हारी मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करेगा।’’
फिर इन्होंने इस धराधाम पर मानव शरीर में आना स्वीकार किया। महर्षि वशिष्ठ ने सूर्य वंश का पौरोहित्य करते हुए अनेक लोक कल्याणकारी कार्यों को सम्पन्न किया। इन्हीं के उपदेश के बल पर भगीरथ ने प्रयत्न करके गंगा जैसी लोक कल्याणकारिणी नदी को हम लोगों के लिए सुलभ कराया। दिलीप को नन्दिनी की सेवा की शिक्षा देकर रघु जैसे पुत्र प्रदान करने वाले तथा महाराज दशरथ ने पुत्रेष्टि-यज्ञ सम्पन्न किया और भगवान श्रीराम का अवतार हुआ। भगवान श्री राम को शिष्य रूप में प्राप्त कर महर्षि वशिष्ठ का पुरोहित जीवन सफल हो गया। भगवान श्री राम के वनगमन से लौटने के बाद इन्हीं के द्वारा उनका राज्याभिषेक हुआ। गुरु वशिष्ठ ने श्री राम के राज्य कार्य में सहयोग के साथ उनसे अनेक यज्ञ करवाए।
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महर्षि वशिष्ठ क्षमा की प्रतिमूर्ति थे। एक बार श्री विश्वामित्र उनके अतिथि हुए। महर्षि वशिष्ठ ने कामधेनु के सहयोग से उनका राजोचित सत्कार किया। कामधेनु की अलौकिक क्षमता को देख कर विश्वामित्र के मन में लोभ उत्पन्न हो गया। उन्होंने इस गौ को वशिष्ठ से लेने की इच्छा प्रकट की। कामधेनु वशिष्ठ जी के लिए आवश्यक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु महत्वपूर्ण साधन थी, अत: इन्होंने उसे देने में असमर्थता व्यक्त की। विश्वा मित्र ने कामधेनु को बलपूर्वक ले जाना चाहा। वशिष्ठ जी के संकेत पर कामधेनु ने अपार सेना की सृष्टि कर दी। विश्वामित्र को अपनी सेना के साथ भाग जाने पर विवश होना पड़ा। द्वेष भावना से प्रेरित होकर विश्वामित्र ने भगवान शंकर की तपस्या की और उनसे दिव्यास्त्र प्राप्त करके उन्होंने महर्षि वशिष्ठ पर पुन: आक्रमण कर दिया, किन्तु महर्षि वशिष्ठ के ब्रह्मदंड के सामने उनके सारे दिव्यास्त्र विफल हो गए और उन्हें क्षत्रिय बल को धिक्कार कर ब्राह्मणत्व लाभ के लिए तपस्या हेतु वन जाना पड़ा।
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विश्वामित्र की अपूर्व तपस्या से सभी लोग चमत्कृत हो गए। सब लोगों ने उन्हें ब्रह्मर्षि मान लिया, किन्तु महर्षि वशिष्ठ ने ब्रह्मर्षि कहे बिना वे ब्रह्मर्षि नहीं कहला सकते थे। अंत में उन्होंने वशिष्ठ जी को मिटाने का निश्चय कर लिया और उनके आश्रम में एक पेड़ पर छिप कर वशिष्ठ जी को मारने के लिए उपयुक्त अवसर की प्रतीक्षा करने लगे। उसी समय अरुन्धति के प्रश्र करने पर वशिष्ठ जी ने विश्वामित्र के अपूर्व तप की प्रशंसा की। क्षमा बल ने पशु बल पर विजयी पाई और विश्वामित्र शस्त्र फैंक कर श्री वशिष्ठ जी के शरणागत हुए। वशिष्ठ जी ने उन्हें उठा कर गले से लगाया और ब्रह्मर्षि की उपाधि से विभूषित किया। इतिहास-पुराणों में महर्षि वशिष्ठ के चरित्र का विस्तृत वर्णन मिलता है। ये आज भी सप्तर्षियों में रह कर जगत का कल्याण करते रहते हैं।