Edited By Niyati Bhandari,Updated: 10 Feb, 2023 08:50 AM
हिमाचल प्रदेश के मंडी जिले के करसोग में बखारी, शिमला-करसोग सड़क मार्ग पर शिमला से 80 लगभग किलोमीटर की दूरी तय करने के पश्चात खील कुफरी से मात्र 10 किलोमीटर
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Mahu Nag temple Karsog Mandi Himachal Pradesh: हिमाचल प्रदेश के मंडी जिले के करसोग में बखारी, शिमला-करसोग सड़क मार्ग पर शिमला से 80 लगभग किलोमीटर की दूरी तय करने के पश्चात खील कुफरी से मात्र 10 किलोमीटर की दूरी पर स्थित यह मंदिर सैंकड़ों वर्षों से जनमानस की भक्ति और प्रगाढ़ आस्था का केंद्र बना हुआ है। श्री मूल माहूंनाग जी महाराज को क्षेत्र के लोग महाभारत समय के श्री कर्ण जी महाराज के रूप में पूजते हैं, जो वही सूर्य पुत्र हैं, जिन्होंने द्वापर युग में पांडवों के विरुद्ध युद्ध किया था।
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Mahunag temple history: कहा जाता है कि माहूंनाग की उत्पत्ति यहां के एक गांव शैब्दल में हुई थी। जब एक किसान खेत में हल जोत रहा था तो अचानक एक जगह आकर हल जमीन में फंस गया। किसान के बहुत प्रयत्न करने पर भी जब हल बाहर नहीं निकला तो मिट्टी हटाकर देखा गया। तब पता चला कि वहां एक मोहरा (पत्थर की मूर्ति) है। उसे बाहर निकालने का प्रयास हुआ, मगर जैसे ही मोहरा बाहर आया तो वहां से उड़ गया और बखारी में स्थापित हो गया, जहां आज मूल माहूंनाग का मंदिर विद्यमान है। भवन पूरी तरह पत्थरों से निर्मित है। इसके दरवाजे और खिड़कियां देवदार की लकड़ी से बनाए गए हैं जिस पर बहुत ही सुंदर नक्काशी की गई है।
मंदिर के दो प्रमुख भाग हैं एक बाह्य व दूसरा आंतरिक। दोनों भवनों के मध्य परिक्रमा मार्ग है। बाहरी भवन से अंदर जाते ही माहूंनाग देवता के दर्शन होते हैं। बाईं ओर एक अखंड धूना जल रहा है।
जनश्रुति के आधार पर यहां पर जल रहे अखंड धूने के बारे में एक कहानी है। कहते हैं यहां एक वृक्ष हुआ करता था जिस पर आसमान से बिजली गिरी और वह पेड़ जल उठा। तब से ही परम्परा बन गई कि यह धूना कभी ठंडा ही नहीं हुआ। एक और खास बात यह भी है कि इस धूने से आज तक किसी ने भी कभी राख बाहर नहीं निकाली। सदियों से यह अनवरत जल रहा है नगर इसकी राख कहां जाती है, यह एक रहस्य है।
आंतरिक भवन, जिसमें मंदिर है, उसकी बाहरी दीवारों पर महाभारत काल की कुछ कहानियां लिखी हुई हैं जो दानवीर कर्ण से संबंध रखती हैं। जैसे ही दाईं ओर से बाहर आते हैं बिल्कुल सामने दो मूर्तियां हैं, जिनमें एक पत्थर की व एक देवदार की लकड़ी की बनी हुई है। लोक शैली में बना यह मंदिर देखने में बहुत सुंदर है।
यहां श्रद्धालुओं के ठहरने का भी उचित प्रबंध किया गया है। साथ ही एक किलोमीटर की दूरी पर लोक निर्माण विभाग द्वारा विश्राम गृह का निर्माण किया गया है जो इस जगह को और अधिक आकर्षक बनाता है।
Mahunag temple distance: यदि यात्री मंदिर परिसर में न ठहरना चाहें तो 10 किलोमीटर की दूरी तय करने के पश्चात चिंडी नामक स्थान पर पर्यटन विभाग द्वारा निर्मित एक बेहद सुंदर यात्री निवास है, जिसकी भव्यता देखते ही बनती है। बखारी में हर वर्ष 15 से 18 मई तक मूल माहूंनाग जी महाराज का मेला लगता है तथा मंदिर के पुजारी श्री काहन चंद शर्मा जी बताते हैं कि श्री मूल माहूंनाग राजा कर्ण जी का जन्मदिन तीन श्रावण अर्थात 18 जुलाई को मंदिर परिसर में बड़े ही धूमधाम से मनाया जाता है। इसके अतिरिक्त पांचवें नवरात्रे से लेकर नवम नवरात्रे तक मंडी के सुंदरनगर में माहूंनाग जी का मेला लगता है।
Tour of Mul Mahunag Mandir Himach Pradesh: समूचे हिमाचल प्रदेश से यहां लोग दर्शनों के लिए एकत्रित होते हैं। देवता जी महाराज तथा इनके साथ चलने वाले इनके सेनापति और मंत्रियों के मोहरों अर्थात मूर्तियों को एक साथ सजाने के लिए जो रथ अर्थात पालकी का उपयोग होता है, उसकी भव्यता भी देखते ही बनती है। इसकी भी एक खास बात यह है कि रथ में उपयोग होने वाले डंडों को पूरा चांदी से मढ़ दिया जाता है। डंडों के अगले भाग में सिंह यानी कि शेर के मुख जैसे आकृति के चांदी से बने मुखौटों का प्रयोग किया जाता है, जिसकी जिव्हा में कड़े जड़े होते हैं। रथ के चारों ओर में चांदी से बनी एक पेटी है जिसमें राजा कर्ण जी महाराज के अतिरिक्त इनके साथ चलने वाले इनके देव गुणों की मूर्तियां हैं। ऊपर के भाग में श्री माहूंनाग जी की मूर्ति विराजमान रहती है तथा पीछे की ओर इनके केश लटके रहते हैं।
रथ के दोनों डंडों के बीच की दूरी इस तरह से रखी गई है कि दो व्यक्ति अंदर की ओर से अपने कंधों के ऊपर पालकी उठा सकें। रथ के सभी भागों में चांदी तथा चांदी से बने सिक्के जड़े हुए हैं।
रथों के साथ प्राचीन काल के कारीगरों द्वारा निर्मित पूजन सामग्री, घंटियां, जल्कुजे धन्यारा और देव आभूषणों की भव्यता हमें हमारे प्रसिद्ध तथा उच्च होने का एहसास दिलाती है। देव नृत्य के समय रथ को चोंर्मुठा अर्थात एक खास किस्म की घास से बने पंखों वाले पंखे से हवा दी जाती है और यह देव नृत्य कई-कई घंटों तक यूं ही चलता रहता है।
रथ के अलावा एक छत्र का प्रयोग भी किया जाता है, जिसे बांस की लकड़ी के निर्मित किया जाता है तथा ऐसा रूप दिया जाता है जिससे यह नृत्य के समय घूम सके। इस विशाल छत्र को बाहर से रंग-बिरंगे कपड़े से रंग दिया गया है जिसमें भगवान के नाम तथा कई चिन्ह अंकित हैं।
यहां के कुछ बुजुर्ग तथा अन्य स्थानीय लोग बताते हैं कि श्री मूल माहूंनाग जी कभी भी दरिया अर्थात सतलुज नहीं लांघते। एक बार एक व्यक्ति मंदिर से माहूंनाग जी महाराज की कुछ मूर्तियां चुराकर अपने साथ ले गया, किन्तु कुछ समय बाद वहीं आकर छोड़ गया।
यह शायद इसलिए कि वह मूर्तियों को दरिया पार नहीं करवा पाया। सतलुज के दूसरी तरफ जो नाग देवता की जातरें होती हैं वहां पर बल्देयां से देवता की पालकी होती है। बल्देयां में जो माहूंनाग देवता है उन्हें इन्हीं का स्वरूप मान कर पूजा की जाती है। यह भी कहा जाता है कि जो महाराज कर्ण जी तथा इनके भाइयों का पुजारी रहता है वह अपने केश आजीवन नहीं काटता तथा सदैव ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करता है। वह व्यक्ति अपने घर यदि जाता है तो वहां पर (सूतक और पातक) जन्म और मरण दोनों की अवस्थाओं में अन्न जल ग्रहण नहीं करेगा।