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महर्षि दयानंद के जीवन से जुड़ी ये कथाएं बदल सकती हैं आपका नजरिया, 1 बार अवश्य करें श्रवण

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 01 Dec, 2023 10:17 AM

moral story of swami dayananda saraswati

मानवता एक ऐसा गुण है, जिसमें सब गुण समाहित हो जाते हैं, जैसे दया, करुणा, परोपकारिता, सहृदयता, सेवा, निश्छलता, न्याय प्रियता, निर्भयता, निष्कपटता के साथ

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Tales of Maharishi Dayanand : मानवता एक ऐसा गुण है, जिसमें सब गुण समाहित हो जाते हैं, जैसे दया, करुणा, परोपकारिता, सहृदयता, सेवा, निश्छलता, न्याय प्रियता, निर्भयता, निष्कपटता के साथ ही लोभ, लालच, ईर्ष्या, द्वेष, घृणा, मोह, अहंकार आदि से दूर रहना आदि। महर्षि दयानंद जी के जीवन की कुछ घटनाओं का संक्षिप्त वर्णन करके उनकी मानवता की भावना को दर्शाने का प्रयत्न किया गया है।

PunjabKesari Tales of Maharishi Dayanand

Kind Maharishi Dayanand दयालु महर्षि दयानंद
महर्षि दयानंद जी अत्यंत दयालु स्वभाव के थे। वह किसी को कष्ट पहुंचाने की कभी सोच ही नहीं रखते थे। प्रवचन के मध्य एक व्यक्ति ने उनके ऊपर जूता फैंक मारा, श्रद्धालु भक्त उखड़ गए। उन्होंने पकड़ कर उसकी खूब पिटाई की। महर्षि जी ने स्वयं उसे छुड़वाया और बोले, ‘‘इसने अज्ञानतावश ऐसा कर दिया, इसलिए यह दया का पात्र है।’’ यह घटना उत्तर प्रदेश के फर्रूखाबाद की है।

Affectionate and generous Maharishi Dayanand स्नेहशील व उदार महर्षि दयानंद
कानपुर में गंगा पुत्रों की काफी संख्या थी। गंगा मंदिर में जो ब्राह्मण पूजा-पाठ करते थे, उन्हें गंगा पुत्र कह कर संबोधित किए जाने की प्रवृत्ति वहां के निवासियों में थी। एक गंगा पुत्र महर्षि दयानंद जी के निवास से कुछ दूरी पर रहता था। उसका मार्ग महर्षि जी की कुटिया के सामने से होकर जाता था।

उसकी नित्य क्रियाओं में एक क्रिया यह भी थी कि जब भी वह महर्षि दयानंद जी के निवास के सामने से आता-जाता तो महर्षि जी के संबंध में अपशब्दों का इस्तेमाल करता। महर्षि जी को इस बात की जानकारी थी, परंतु उन्होंने कभी आक्रोश प्रकट नहीं किया।

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महर्षि जी के पास श्रद्धालु जब नित्य ही फल और मिष्ठान्न आदि लेकर आते, वह उन्हें वहां उपस्थित सज्जनों को वितरित कर देते। एक दिन मिष्ठान्न आदि सामग्री बांटने के पश्चात बची रह गई। उसी समय गंगा पुत्र अपशब्द बोलता हुआ वहां से जा रहा था।

महर्षि जी ने उसे बुलवाया और आदर भाव से अपने समीप आसन पर बिठा कर अति प्रेम से लड्डू व अन्य मिष्ठान्न उसे समर्पित किए और स्नेह से बोले, ‘‘इसी समय आप नित्य आया कीजिए। भक्त लोग बहुत-सी खाद्य सामग्री लाते हैं। आप भी उसमें से प्रसाद स्वरूप ग्रहण किया करें।’’

इसके पश्चात नित्य संध्या समय वह महर्षि जी के पास आने लगा और उनसे प्रसाद पाकर संतुष्ट होता रहा। उसके मन में कभी-कभी यह शंका उठ खड़ी होती थी कि अवश्य ही किसी दिन महर्षि जी मेरे द्वारा बोले गए अपशब्दों की चर्चा करेंगे परंतु महर्षि जी ने ऐसा न किया। कभी-कभी धर्म चर्चा उसके साथ अवश्य किया करते थे। महर्षि जी के ऐसे स्नेह समन्वित व्यवहार से उसे अपने किए पर पश्चाताप होने लगा और एक दिन ऐसा हुआ कि उसने महर्षि जी के चरण पकड़ उनसे अपनी भूल के लिए क्षमा कर देने की प्रार्थना की।

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महर्षि दयानंद जी ने कहा, ‘‘वत्स ! हम इस प्रकार की बातों पर ध्यान नहीं देते। तुम भी उन बातों का विस्मरण कर दो और आनंद से रहो।’’ वह गंगा पुत्र महर्षि जी का भक्त हो गया।  

 

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