Edited By Jyoti,Updated: 21 Jul, 2022 12:00 PM
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ओम ''ॐ'' परमपिता परमात्मा का वेदोक्त एवं शास्त्रोक्त नाम है। समस्त वेद-शास्त्र ओम की ही उपासना करते हैं। अत: ओम का ज्ञान सर्वोत्कृष्ट है। ईश्वर के सभी स्वरूपों की उपासना के मंत्र ओम से ही प्रारंभ होते हैं। ईश्वर के इस नाम को ‘ओंकार’ एवं ‘प्रणव’ आदि...
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ओम 'ॐ' परमपिता परमात्मा का वेदोक्त एवं शास्त्रोक्त नाम है। समस्त वेद-शास्त्र ओम की ही उपासना करते हैं। अत: ओम का ज्ञान सर्वोत्कृष्ट है। ईश्वर के सभी स्वरूपों की उपासना के मंत्र ओम से ही प्रारंभ होते हैं। ईश्वर के इस नाम को ‘ओंकार’ एवं ‘प्रणव’ आदि नामों से भी संबोधित किया जाता है।
ॐ पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्ण मेवा: शिष्यते।
अर्थात वे ओंकार स्वरूप परमात्मा पूर्ण हैं। पूर्ण से पूर्ण उत्पन्न होता है और पूर्ण में से पूर्ण निकल जाने पर पूर्ण ही शेष रह जाता है।
‘ॐ तत सत’ तीन प्रकार के सच्चिदानंदन ब्रह्म के नाम हैं, उसी से दृष्टि के आदिकाल में वेद तथा यज्ञ आदि रचे गए। परम अक्षर अर्थात ú ब्रह्म है। तीन अक्षरों अ+उ+म का यह शब्द सम्पूर्ण जगत एवं सभी के हृदय में वास करता है। हृदय आकाश में बसा यह शब्द ‘अ’ से आदि कत्र्ता ब्रह्म, ‘उ’ से भगवान विष्णु एवं ‘म’ से भगवान महेश (शिवजी) का बोध करा देता है। यह उस अविनाशी का शाश्वत स्वरूप है जिसमें सभी देवता वास करते हैं। ‘ओम’ का नाद सम्पूर्ण जगत में उस समय दसों दिशाओं में व्याप्त हुआ था जब युगों पूर्व सृष्टि का प्रारंभ हुआ था और इसकी रचना हुई थी।
मनुष्य शरीर पांच तत्वों से बना है- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा आकाश। यह आकाश तत्व ही जीवों में शब्द के रूप में विद्यमान है।
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‘ओंकारो यस्य मूलम’- वेदों का मूल भी यही ओम है। ऋग्वेद पत्र है, सामवेद पुष्प है और यजुर्वेद इसका इच्छित फल है। तभी इसे ‘प्रणव’ नाम दिया गया है जिसे बीज मंत्र माना गया है।
ॐ के उच्चारण में कुछ सैकेंड का समय ही लगता है। अक्षर ‘अ’ का उच्चारण स्थान कंठ है और ‘उ’ एवं ‘म’ का उच्चारण स्थान ओष्ठ (होंठ) माना गया है। नाभि के समान प्राणवायु से एक ही क्रम में श्वास प्रारंभ करके ओष्ठों तक और फिर मस्तक तक ‘उ’ एवं ‘म’ का उच्चारण होता है और यह प्रक्रिया समाप्त होती है।
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ॐ उच्चारण के लाभ
ॐ की ध्वनि से विकृत शारीरिक-मानसिक विचार निरस्त हो जाते हैं। उच्चारण करने वाले किसी भी व्यक्ति को यह असीम शांति प्रदान करता है। ‘ओम’ की इसी महिमा को दृष्टि में रखते हुए हमारे धर्म ग्रंथों में इसकी अत्यधिक उत्कृष्टता स्वीकार की गई है। —राजकुमार कपूर