प्रत्येक साधक अपने जीवन में दैनिक साधना अवश्य संपन्न करता है और विशेष साधनाओं में विशेष मंत्र भी आहूत किए जाते हैं लेकिन प्रत्येक साधना में किस प्रकार का क्रम रखा जाए, अपने ईष्ट, सद्गुरुदेव, कुल देवता का पूजन कैसे संपन्न किया जाए इसके लिए नियमबद्ध...
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प्रत्येक साधक अपने जीवन में दैनिक साधना अवश्य संपन्न करता है और विशेष साधनाओं में विशेष मंत्र भी आहूत किए जाते हैं लेकिन प्रत्येक साधना में किस प्रकार का क्रम रखा जाए, अपने ईष्ट, सद्गुरुदेव, कुल देवता का पूजन कैसे संपन्न किया जाए इसके लिए नियमबद्ध विधान तो यही है। प्रत्येक साधना में उपचार का विशेष महत्व है, उपचार का अर्थ है, अपने ईष्ट या देवता के प्रति भक्तिभाव अनुष्ठित कर उसका सान्निध्य प्राप्त करना। इसलिए इसको उपचार कहते हैं।
देवता के पूजन उपचारों के संबंध में एक मत नहीं है, फिर भी इनका उपयोग जितनी सावधानी से किया जाए उतनी ही सरलता से साधकों को सफलता प्राप्त होती है। उपचारों की विभिन्नता के विषय में एकोपचार से लेकर सहस्रोपचार, लक्ष्योपचार का शास्त्रों में विशद वर्णन मिलता है, हमारा मुख्य विवेचन विषय केवल षोडशोपचार, दशोपचार या पंचोपचार है। युगानुकूल प्रत्येक का अपना महत्व है, वर्तमान में जबकि हर व्यक्ति जीवन के सामान्य उपयोगी कार्यों में अत्यंत व्यस्त है फिर भी अपने व्यस्त जीवन में से समय निकाल कर जो पूजन कर पाते हैं, यह उनका सौभाग्य ही है।
मूल रूप से ‘षोडशोपचार पूजन’ अर्थात सोलह वस्तुओं का अर्पण करते हुए पूजन करना चाहिए लेकिन नित्य प्रति का पूजन पंचोपचार गन्ध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य से संपन्न किया जा सकता है। षोडशोपचार आवाहन, आसन, पाद्य, अघ्र्य, आचमनीय, स्नान व मधुपर्क, तिलक, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, ताम्बूल, नारियल।
आवाहन
देवता या ईष्ट के पहले से ही प्रतिष्ठित होने के कारण आवाहन को कई लोग उपचारों में नहीं मिलते, उसके स्थान पर ध्यान करना चाहिए, ऐसा किन्हीं का मत है। इसके लिए दोनों हाथ जोड़कर निम्र मंत्र का उच्चारण करना चाहिए।
आवाहयामि देवेश सर्वशक्ति शक्ति समन्विते नारायणाय भद्राय गुरुरूपायते नम:।
गुरुब्रह्मा गुरु विष्णु: गुरुदेवो महेश्वर:। गुरु: साक्षात परब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नम:॥
आसन : आत्म शुद्धि के लिए, समस्त रोग निवारण के लिए तथा समस्त सिद्धियों की प्राप्ति के लिए आसन का उपयोग किया जाता है, जप क्रिया में जला हुआ, पुराना या फटा हुआ तथा दूसरे का आसन उपयोग नहीं करना चाहिए। मृगचर्म, व्याघ्रचर्म, कुश, रेशम, रुई तथा ऊन का आसन ग्राह्य है। देवताओं को पुष्प का आसन देना चाहिए क्योंकि पुष्प हृदय की पावनता का प्रतीक है। पवित्रता ही ईष्ट कृपा का सबसे बड़ा सम्बल है इसके लिए निम्र मंत्र का उच्चारण करें-
रम्यं सुशोभनं दिव्यं सर्व सौख्यकरं शुभम्। आसनं च मया दत्तं गृहाण परमेश्वर॥
पाद्य : आहूत देवताओं को चरण धोने के लिए जल दिया जाता है, उसे पाद्य कहते हैं, उसके लिए दो आचमनी जल समर्पित करना चाहिए। पाद्य समर्पित करते समय निम्र मंत्र का जप करें-
यद् भक्ति लेश सम्पर्कत् परमानंद संभव:। तस्मै ते परमेशान पाद्यं शुद्धाय कल्पये॥
अर्घ्य : देवताओं को हस्त प्रक्षालन के लिए जो जल दिया जाता है, उसे अघ्र्य कहा जाता है, किसी पात्र में जल लेकर उसमें सुगंधित द्रव्य तथा पुष्प डाल कर देवता को समर्पित करके और निम्र मंत्र का उच्चारण करें-
अर्घ्य गृहाण देवेश! गन्ध पुष्पाक्षतै: सह। करुणां कुरु मे देवए गृहाणाघ्र्य नमस्तु ते॥
आचमनीय- देवताओं को मुख शुद्धि के लिए जो जल दिया जाता है उसे आचमनी जल कहते हैं, हमारी परम्परा रही है कि जिन देव, गुरु या अतिथि का आवाहन करते हैं, मुख शुद्धि के लिए उन्हें जल देते हैं, उस समय निम्र मंत्र बोलें-
सर्व तीर्थ समानीतं सुगन्धिं निर्मलं जलं। आचम्यतां मयादत्तं गृहाण परमेश्वर॥
स्नान : देवता स्वयं ज्ञानरूपी समुद्र में स्थित हैं, सभी जल उनसे अनुबंधित हैं, फिर उन्हें स्नान कैसे? फिर भी समर्पण युक्त स्नान के लिए तीन आचमनी से जल चढ़ावें-
गंगा सरस्वती रेवा पयोष्णि नर्मदाजलै:। स्नापितोऽसि मया देव तथा शाङ्क्षत कुरुष्ण मे॥
वस्त्र- स्वच्छ और अछिद्र वस्त्र देवता को प्रदान करना चाहिए, फटे या पुराने वस्त्र चढ़ाने से दरिद्रता तथा मलिन वस्त्र से तेज हीन होता है। वस्त्र के अभाव में मौली चढ़ाएं।
सर्व भूषादि के सौम्ये लोक लज्जानिवारणे। मयो पपादिते तुभ्यं गृहाण परमेश्वर।।
तिलक : पाप, दोष, दुर्भाग्य और क्लेशनाश के लिए देवता को तिलक किया जाता है, सभी तिलकों में सुगन्ध द्रव्य युक्त श्वेत चंदन ही श्रेष्ठ माना जाता है, यदि संभव हो तो अष्टगंध, गोरोचन, श्वेत चंदन, कपूर, कस्तूरी, केसर का तिलक करें जो सर्व देवताओं को प्रिय है। मंत्र-
श्री खंड चन्दनं दिव्यं गन्धाढयं सुमनोहरम्। विलेपनं सुरश्रेष्ठ चन्दनं प्रतिगृहयाताम्।।
अक्षत : अक्षत का अर्थ है जो चावल टूटे नहीं हैं, उन्हें देवता को इसलिए चढ़ाते हैं कि इससे साधक को अक्षुण्ण रूप धन-धान्य की प्राप्ति हो। अक्षत चढ़ाते समय कुंकुम मिलाना चाहिए। मंत्र-अक्षताश्च सुरश्रेष्ठ कुंकुमाक्ता: सुशोभिता:। मया निवेदिता भक्तया गृहाण परमेश्वर।।
पुष्प- सुख, सौभाग्य के लिए, आरोग्य प्राप्ति के लिए देवताओं को पुष्प समर्पित करें। मंत्र-
माल्यादीनि सुगंधीनि मालत्यादीनि वैप्रभो। मयोपनीतानि पुष्पानि गृहाण परमेश्वर।।
धूप- श्रेष्ठ वनस्पतियों से निर्मित, सुगंध पूर्ण तथा देवता के ग्रहण करने योग्य औषधियों से बनी हुई धूप देवता को दिखानी चाहिए, जिसके प्रभाव से दोषों का शमन हो सके।
वनस्पति रसोदभूत: गन्धाढय: सुमनोहर:। आघ्रेय: सर्वदेवानां धूपोऽयं प्रतिगृहयताम।।
दीप : देवताओं को दीपक दिखाने का अर्थ है जिस प्रकार दीपक प्रज्वलित होकर अंधकार को दूर करता है, उसी प्रकार इस दीपक के माध्यम से हमारे हृदय का अज्ञान रूपी अंधकार दूर हो।
सुप्रकाशो महादीप: सर्वत: तिमिरापह:। स बाह्याम्यरं: ज्योति: दीपोऽयं प्रतिगृह्यताम।।
नैवेद्य- नैवेद्य का अर्थ है, अमृतांश की भावना। नैवेद्य अर्पित करते समय यह भावना रखनी चाहिए कि तृप्ति हेतु भगवान को सुस्वाद भोजन अर्पित कर रहा हूं, इससे वह प्रसन्न हों।
नैवेद्यं गृह्यतां देव भकिंत में ह्यचलां कुरु। ईप्सितं मे वरं देहि, सर्वसौभाग्य कारकम।।
ताम्बूल- सुपारी, लौंग, इलायची मुख शुद्धि कारक पदार्थ से युक्त पान देना चाहिए, ताम्बूल सोलह कलाओं का प्रतीक है, ताम्बूल प्रदान करने से पूर्ण अमृतत्व प्राप्ति हो यही आशय है-
पूंगीफलं महद् दिव्यं नागवली र्दलैर्युतम्। एलादि चूर्ण संयुक्तं ताम्बूलं प्रतिगृह्यताम।।
नीरांजन आरती- जिस देवता की आराधना पूजा कर रहे हैं उसकी आरती गा सकते हैं, घी से बनी हुई एक बत्ती, पांच बत्ती से आरती करें तथा फिर मंत्र बोलें।
आनंद मत्र मकरन्दम अनन्त गन्धं योगीन्द्र सुस्थिर
मलिन्दम् अपास्तबन्धम् वेदान्त करणेक विकाशशीलमं नारायणस्य चरणाम्बुज मानतोऽस्मि।
देव नमस्कार पूजन विधान के साथ पूजन पूर्ण होता है। उपचार युक्त मंत्रों को श्रद्धा और समर्पण के साथ बोलते हुए यदि षोडशोपचार पूजन संपन्न न कर केवल पंचोपचार पूजन ही किया जाए तो भी उत्तम है। परंतु देव पूजन, ईष्ट पूजन, गुरु पूजन नित्य अवश्य ही संपन्न करना चाहिए।