ज्योतिर्लिंग न होते हुए भी विश्वप्रसिद्ध है पशुपतिनाथ मंदिर, ये है अंदर की बात

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 29 Dec, 2021 12:18 PM

pashupatinath mandir nepal

नेपाल में काठमांडू के हृदय में स्थित है विश्वप्रसिद्ध पशुपतिनाथ मंदिर। यह हिंदुओं का सबसे बड़ा शिव मंदिर है। हालांकि मान्यता प्राप्त बारह ज्योतिर्लिंगों में पशुपतिनाथ का नाम नहीं है फिर भी पशुपतिनाथ को दैदीप्यमान लिंग माना जाता है।

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नेपाल में काठमांडू के हृदय में स्थित है विश्वप्रसिद्ध पशुपतिनाथ मंदिर। यह हिंदुओं का सबसे बड़ा शिव मंदिर है। हालांकि मान्यता प्राप्त बारह ज्योतिर्लिंगों में पशुपतिनाथ का नाम नहीं है फिर भी पशुपतिनाथ को दैदीप्यमान लिंग माना जाता है। मंदिर का नाम पशुपतिनाथ रखने के पीछे एक पौराणिक कथा है। सदियों पहले से काठमांडू अपने प्राकृतिक सौंदर्य के लिए बेमिसाल रहा है। ऐसी सुरम्य तपोभूमि के प्रति आकर्षित होकर एक बार आशुतोष शिव भी कैलाश पर्वत छोड़ यहीं आकर रम गए थे और यहां तीन सींगों वाला मृग बनकर इधर-उधर टहलने लगे। उधर भगवान शिव को गायब देखकर ब्रह्माजी और विष्णु जी को चिंता हुई और दोनों देवता शिवजी की खोज में निकल पड़े। 

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ब्रह्मा जी ने योग विद्या से पहचान लिया कि तीन सींगों वाला मृग ही शिव हैं। ज्यों ही उन्होंने उछलकर मृग के सींग पकडऩे की कोशिश की, सींग के तीन टुकड़े हो गए। सींग का एक हिस्सा यहीं गिरा था और यह स्थान पशुपतिनाथ के नाम से विख्यात हो गया। देवताओं ने शिव से कैलाश पर्वत लौटने का अनुरोध किया, लेकिन उन्होंने वहीं रहने का फैसला किया। शिवजी की इच्छानुसार भगवान विष्णु ने बागमती के ऊंचे टीले पर शिव को पशु योनि से मुक्ति दिलाकर लिंग के रूप में स्थापित किया।

पशुपतिनाथ मंदिर के मुख्य द्वार के ऊपर स्वर्ण कलश युक्त तीन शिखाएं हैं। चार सीढिय़ां उतर कर प्रांगण आता है। बीचों-बीच मुख्य मंदिर की पैगोडा शैली की छतें, गुम्बद, ध्वज, शिखर और छोटी-बड़ी अनेक मूर्तियां सुशोभित हैं। प्रांगण में विशाल नंदी सोने की भांति दीप्तिमान हैं। उनके जरा आगे एक और हू-ब-हू छोटे नंदी विराजमान हैं। नंदी जी की दाईं ओर वीर मुद्रा में महावीर हनुमान जी हैं। शिवलिंग के पश्चिमी मुख की तरफ बने पीतल के नंदी जी का निर्माण पशुपतिनाथ मंदिर के संस्थापकों की 20वीं पीढ़ी के राजा धर्मदेव ने करवाया था।

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शिवलिंग कक्ष पशुपतिनाथ मंदिर के लम्बे-चौड़े आंगन के मध्य स्थित है। मंदिर के भीतर स्थापित शिवलिंग के चारों मुखों के ठीक सामने चारों दिशाओं के चार दरवाजे हैं। मंदिर के अंदर-बाहर की दीवारें चांदी की दीवारों पर देवी-देवताओं की मूर्तियां उभरती हैं। मंदिर के दो प्रकोष्ठ हैं। भक्त शिवलिंग के दर्शन पहले द्वार से ही करते हैं। पुजारी भक्तों के प्रसाद, पुष्प, रुद्राक्ष और चढ़ावे को शिवलिंग से स्पर्श कराते हैं। यहां भक्तों को चंदन का टीका लगाने और अमृतपान कराने की प्रथा है।

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पशुपतिनाथ का पंचमुखी लिंग है। एक पौराणिक नेपाली कथा के अनुसार नित्यानंद नामक ब्राह्मण की गाय प्रतिदिन एक ऊंचे टीले पर जाकर स्वयं अपना दूध बहा आती थी। स्वामी नित्यानंद को स्वप्र में शिवजी ने दर्शन दिए। फिर जब उन्होंने टीले की खुदाई की तो पंचमुखी लिंग मिला। यह पंचमुखी शिवलिंग लगभग एक मीटर ऊंचा है और काले पत्थर का बना है। सदियों से पंचामृत अभिषेक के नियमित जारी रहने के बावजूद न घिसना इसकी खासियत को सिद्ध करता है।

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पशुपतिनाथ मंदिर स्थित पंचमुखी लिंग के चार मुख अलग-अलग दिशाओं में हैं और पांचवां मुख ऊपर की ओर है। चारों दिशाओं में बने प्रत्येक स्वरूप के दाएं हाथ में 16 माणिक की रुद्राक्ष माला और बाएं हाथ में कमंडल है। शिवलिंग की पश्चिम पूर्व, उत्तर, दक्षिण और ऊपरी दिशा के मुख क्रमश: सद्योजात, तत्पुरुष, वामदेव, अघोर और ईशान कहलाते हैं। ऊपरी दिशा या ईशान मुख पशुपतिनाथ का श्रेष्ठतम मुख है। यही लोक कल्याणकारी वरदाता शिव रूप है।

मुख्य मंदिर कक्ष के पश्चिमी मुख की तरफ पैगोडा शैली की बड़ी छत के दोनों शार्दूलों के बीच में राम, सीता, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न और हनुमान की छ: काष्ठ मूर्तियां अंकित हैं। उधर दक्षिण मुख की तरफ दोनों शार्दूलों में युधिष्ठिर, द्रौपदी, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव की छ: काष्ठ मूर्तियां हैं। यहीं द्वार के ठीक ऊपर पुरुष मुख के गरुड़ पर बैठे विष्णु की रजत मंडित प्रतिमा है। इसी प्रकार पूर्व की ओर दोनों शार्दूलों के मध्य बलराम, महेश्वरी, सरस्वती, गंगा, यमुना और विश्वकर्मा की छ: काष्ठ मूर्तियां हैं तथा उत्तर की ओर गणेश, ब्रह्मा, शंकर-पार्वती, विष्णु और कुमार की छ: काष्ठ मूर्तियां हैं।

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पशुपतिनाथ को छोटे-बड़े मंदिर समूहों का महा मंदिर कहा जा सकता है। पशुपति लिंग के उत्तरी मुख के सामने प्रांगण में शिव का विशाल त्रिशूल बना है। त्रिशूल पर डमरू और फरसा भी हैं। ऐसे दो त्रिशूल हैं- एक पीतल का और दूसरा लोहे का। उत्तर-पूर्व के कोने में कुछ सीढिय़ां चढ़कर वासु की (सर्प देवता) का मंदिर है। ऐसी मान्यता है कि पशुपति दर्शन से पहले वासुकी के दर्शन करने चाहिएं। 

वासुकी मंदिर के पश्चिम की ओर तांडव शिव मंदिर है। द्वार के ठीक सामने दीवार पर पार्वती की प्रतिमा है और बीच में शिवलिंग स्थापित है। इर्द-गिर्द अन्य मूर्तियां भी सुसज्जित हैं। वासुकी मंदिर के समीप कुछ सीढिय़ां उतर कर बागमती की तरफ जाने के रास्ते पर शेषशायी विष्णु की लगभग एक मीटर लम्बी प्रतिमा जमीन पर लेटी हुई बनी है। यह काठमांडू के विख्यात विष्णु मंदिर बूढ़ा नीलकंठ की प्रतिकृति है।

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पीछे की तरफ बागमती नदी बह रही है। सीढिय़ों पर ही तारकेश्वर महादेव का लिंग स्थापित है। इसके साथ ही अनेक मकरमुखों की मूर्तियां हैं। बागमती के दाएं तट पर ही आर्यघाट है जहां शवों का दाह-संस्कार किया जाता है। आर्यघाट पर त्रिविक्रम की मूर्ति है। यहीं विरुपाक्ष की एक भव्य मूर्ति है।

सीढिय़ां चढ़ते ही गणेश मंदिर है। बाईं ओर एक बड़े पेड़ के तने के साथ मुक्ति मंडल है। यहां राख मले जटाधारी साधुगण बैठे धूनी जलाते हैं। आगे बरामदे में संगमरमर की कृष्ण प्रतिमा के दर्शन होते हैं फिर र्कीतमुख भैरव, शीतला देवी और चौंसठ लिंगों का मंदिर है। ऐसा माना जाता है कि चौंसठ लिंगों के मंदिर की परिक्रमा करने से चौरासी लाख योनियों से मुक्ति मिलती है। सम्पूर्ण नेपाल में शिवजी के चौंसठ विभिन्न मंदिर हैं इसलिए मंदिर का नाम चौंसठ लिंग पड़ा है।

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सामने उन्मत भैरव का मंदिर है। मूर्ति बहुत डरावनी है। भैरव शिव का ही विनाशकारी रूप है। आगे बाईं ओर चलने पर भजन मंडल है और दाईं ओर यज्ञशाला।  यज्ञशाला में प्रवेश द्वार के बाईं तरफ पशुपतिनाथ की प्रार्थना करती मुद्रा में अनेक मूर्तियां हैं। तमाम मूर्तियां धातु और पत्थर से निर्मित नेपाल के प्राचीन मल्ल राजा, रानी, मकै सुब्बा आदि दाताओं की हैं। भजन मंडल के सामने चौक में शनि, शुक्र, राहू, केतु, मंगल, बुध, बृहस्पति, चंद्र और सूर्य नौ ग्रह पत्थर के चौकों पर उकेरे गए हैं, फिर मुख्य द्वार के भीतर से बाईं ओर सत्यनाराण मंदिर है।

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श्री पशुपतिनाथ मंदिर में पूजा के लिए दक्षिण भारत के सुयोग्य ब्राह्मणों को पुजारी बनाया जाता है। पुजारी का गृहस्थ होना अनिवार्य है। मंदिर के पुजारी को भट्ट कहा जाता है।  इनमें प्रमुख भट्ट को रावल कहा जाता है। भट्ट वंश परम्परा से नहीं होते। वास्तव में कर्नाटक के तीर्थ उडुपि से पशुपतिनाथ में ब्राह्मण भेजे जाने की प्रथा है। एक प्रमुख ब्राह्मण ‘मूलट भट्ट’ और तीन उप-ब्राह्मण ‘भट्ट’ सदियों से आज भी भेजे जाते हैं।

ऐसा बताया जाता है कि उन दिनों राज परिवार में कलह चल रहा था। तब नरेश ने उडुपि (दक्षिण भारत का तीर्थ) से एक ब्राह्मण को आमंत्रित किया ताकि पारिवारिक मसलों को  सुलझाया जा सके।  उडुपि के ब्राह्मण को सफलता मिल गई तो राजा ने ‘पंजा पत्र’ जारी करके पशुपतिनाथ की देख-रेख उडुपि के ही ब्राह्मणों को सौंप दी। ‘पंजा पत्र’ को किसी भी अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती और इस आदेश का संशोधन भी संभव नहीं है।

आज केवल उडुपि ब्राह्मण ही गर्भगृह में आ-जा सकते हैं, सेवा कर सकते हैं। नेपाली पुजारी को भंडारी कहा जाता है जो यहां पूजना-अर्चना करते हैं। शर्त है कि भंडारी का जन्म पशुपति क्षेत्र सीमा में होना चाहिए। प्रतिदिन सुबह मंदिर के चार भंडारी पूजा-अर्चना करते हैं। भंडारी नेपाली ब्राह्मण और वंश परम्परा के होते हैं। चढ़ावे की नकदी तीन भागों में बंटती है। एक तिहाई भाग चारों भंडारियों को और शेष दो तिहाई भाग दक्षिण भारपंत के पांच भट्टों को प्राप्त होता है। रावल जी का अंश अन्य भट्टों से दोगुना होता है। सोना, चांदी और तमाम अन्य मूल्यवान भेंटें मंदिर के कोष में जमा कर दी जाती हैं।

माघ और पौष माह में कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को पशुपतिनाथ को बारह बजे से सुबह चार बजे तक जरी के वस्त्रों और स्वर्ण आभूषणों से सजाया जाता है। पशुपतिनाथ की महिमा न्यारी है पशुपतिनाथ में भक्तों की अटूट श्रद्धा, आस्था और विश्वास इस तरह है कि भारत से भी हजारों शिवभक्त बार-बार काठमांडू जाकर पशुपतिनाथ के चरणों में माथा टेकते हैं। पशुपतिनाथ का माहौल सदा शिवमय रहता है।  ‘जय शंभो!  जय शंभो’ के जयकारे दिन-रात गूंजते रहते हैं।

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