Patal Bhuvaneshwar: जमीन के अंदर बने पाताल भुवनेश्वर में हैं शिव जी की गुप्त गुफाएं

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 12 Jul, 2024 12:51 PM

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उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल के गंगोलीहाट जिले के उत्तर में स्थित है पाताल भुवनेश्वर। कहा जाता है कि यहां तैंतीस कोटी देवी-देवता निवास करते हैं तथा स्वयं महादेव यहां रहकर तपस्या करते हैं। महादेव का

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Patal Bhuvaneshwar Cave Temple: उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल के गंगोलीहाट जिले के उत्तर में स्थित है पाताल भुवनेश्वर। कहा जाता है कि यहां तैंतीस कोटी देवी-देवता निवास करते हैं तथा स्वयं महादेव यहां रहकर तपस्या करते हैं। महादेव का कैलाश पर्वत पर जाने का एक रास्ता पाताल भुवनेश्वर से भी जाता है। गुफा के बारे में महाभारत में भी उल्लेख मिलता है, जब व्यास जी ने कथा सुनाई कि द्वापर युग में सूर्यवंशी राजा ऋतुपर्ण थे जो शिकार करते-करते यहां आ पहुंचे, उनका शिकार कहीं छिप गया। वहां शिव के रक्षक शेषनाग ने कहा, ‘‘राजा तुम यदि मेरे प्रश्रों का सही उत्तर दो तो तुम्हारा कल्याण होगा। मैं तुम्हें मार्ग बता सकता हूं।’’

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शेषनाग ने पूछा, ‘‘इस भूमंडल पर सभी जन किस देव के उपासक हैं ? तुम सूर्यवंशी तथा अन्य राजगण किस देव का पूजन कर राजलक्ष्मी का उपभोग करते हो ?’’

राजा ने उत्तर दिया, ‘‘पृथ्वी पर सभी वर्णों के लोग शिव की आराधना करते हैं। सभी वंशों के राजा शैव हैं।’’

शेषनाग ने फिर पूछा, ‘‘क्या तुम इस गुफा से परिचित हो ? क्या तुम्हें पता है यहां शंकर का आवास है ?’’

राजा ने उत्तर दिया, ‘‘नहीं। मैं इस गुफा से परिचित नहीं हूं। कृपा करके गुफा के दर्शन कराएं तथा मुझे भगवान शिव के दर्शन कराएं।’’

शेषनाग ने कहा, ‘‘इस गुफा में पाताल भुवनेश्वर विद्यमान हैं, साथ ही तैंतीस कोटी देवता भगवान शंकर की सेवार्थ निवास करते हैं। यहां पर भगवान शंकर की गुप्त गुफाएं भी हैं। स्मर, स्मेरू तथा सुधामा नाम की गुफा में स्वयं भगवान जागरूक रहते हैं।’’

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तब शेषनाग ने राजा को दिव्य चक्षु प्रदान किए। तब राजा ने स्वयं देवताओं के दर्शन किए।

ऐसी गुफा देखने की हमें बहुत लालसा थी। जब हम वहां पहुंचे तो गुफा के अंदर बहुत अंधेरा था। दरवाजे के अंदर यात्रियों की सुविधा के लिए एक छोटा बल्ब लगा था। उतरने के लिए छोटी-सी लोहे की सीढ़ी तथा पकड़ने के लिए एक मोटी-सी लोहे की जंजीर लगी थी। नीचे पहुंच कर हमारे आश्चर्य का ठिकाना न रहा क्योंकि नीचे का भाग बहुत बड़ा तथा खुला था। बाहर गुफा के ऊपर मौजूद पेड़ों की भीतर न कोई जड़ें या शाखाएं थीं न किस तरह जंगल का कोई चिन्ह। पक्के पत्थरों की बनी बड़ी-सी गुफा थी जिसमें काफी रोशनी तथा हवा थी। किसी प्रकार का कोई अंधेरा घुटन या सीलन नहीं थी। एकदम साफ-सुथरी और खुली-खुली जिसमें सौ से ज्यादा लोग एक साथ आ सकते थे।

गुफा में उतरने के लिए 82 सीढ़ियां हैं। गुफा की कुल लम्बाई 390 मीटर जिसमें सीढ़ियों तक की लम्बाई 90 मीटर है। गुफा के अंदर हमने सबसे पहले सीढ़ियों के बीच में विष्णु भगवान के अवतार नृसिंह भगवान का फुटलिंग शोभित देखा। नीचे पहुंचते ही गाइड ने दाहिनी ओर शेषनाग की फन फैलाए मूर्ति दिखाई जिसने अपने फन पर सम्पूर्ण पृथ्वी को धारण कर रखा है। इसके आगे एक हवनकुंड दिखाया और बताया कि राजा जनमेजय ने अपने पिता परीक्षित के उद्धार के लिए उलंग ऋषि के निर्देशानुसार इसी हवन कुंड में सर्प यज्ञ किया था। कुंड के ऊपर तक्षक नाग बना हुआ है जिसने राजा परीक्षित को काट लिया था।

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इसी के साथ-साथ हम लोग गुफा में आगे बढ़े। गुफा की जमीन टेढ़े-मेढ़े पत्थर की बनी हुई थी। गाइड ने कहा यह शेषनाग की रीढ़ की हड्डी है फिर उन्होंने हमें शेषनाग के फन, दांत और विष की पोटली भी दिखाई।

गुफा में आगे बढ़ने पर छत की ओर एक कमल की सी आकृति बनी थी जिससे जल की बूंदें टपक रही थीं नीचे गणेश जी की सी आकृति थी। गाइड ने बताया कि यह सहस्र कमल है इसके ही जल की बूंदों से गणेश जी के सिर को उनके धड़ से अलग कटने पर जीवित रखा गया था। बाद में उनको हाथी का सिर लगाया गया था। ऐसी पौराणिक मान्यता है।

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गणेश जी के सामने चारधाम, केदारनाथ, बद्रीनाथ तथा अमरनाथ लिंगों के रूप में विराजमान हैं। इन लिंगों के बगल में एक गुफा जैसी आकृति थी जिससे एक जीभ जैसी आकृति लटकती दिखाई दे रही थी। पुजारी जी ने कहा कि यह शिव का काल भैरव रूप है जिसमें उनकी जीभ दिखाई दे रही है। यह जो गुफा जैसी दिखाई दे रही है उसे ब्रह्मलोक का मार्ग माना जाता है।

इन्हीं काल भैरव के सामने भगवान शंकर का आसन लटकता हुआ दिखाई दे रहा था। हमें कहा गया कि इस पर मुंडमालाधारी पातालचंडी तथा उनका वाहन शेर दिखाई देता है। यहां सभी आकृतियां प्राकृतिक हैं, जिन्हें कल्पना से ही रूप दिया गया है।

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इसके बाद हमें 4 द्वार दिखाई दिए। बताया गया कि 3 द्वार सतयुग, द्वापर, त्रेता युग की समाप्ति पर बंद हो चुके हैं। मात्र कलियुग का द्वार कलियुग की समाप्ति पर बंद होगा। मोक्षद्वार के आगे खुला हुआ हिस्सा था वहां दीवार पर ऐसा लग रहा था जैसे कोई वृक्ष की आकृति हो जिस पर फूलों के गुच्छे लगे हों। माना जाता है कि वह पारिजात का वृक्ष है जिसे भगवान कृष्ण इन्द्र की अमरावती पुरी से पृथ्वी लोक में लाए थे।
 
इसके बाद हम एक संकरे रास्ते पर चले जिसे कदली वन मार्ग कहते हैं। रास्ते में छोटी-छोटी कई गुफाएं थीं जिन्हें मार्कण्डेय ऋषि तथा सप्तर्षि की गुफा के नाम से लोग जानते हैं। गुफा के बीच में एक छोटा-सा कुंड बना था, जिसमें जल भरा था इसे सप्तकुंड कहते हैं। इसके बगल में नंदी और विश्वकर्मा कुंड हैं। सप्तकुंड का जल श्रद्धालु अपने साथ प्रसाद स्वरूप भी ले जाते हैं। कुछ आगे चढ़ाई के लिए दो-चार सीढ़िया बनी थीं। इस प्रकार लगभग एक घंटे गुफा में रहकर हम वापस उन्हीं सीढ़ियों के पास पहुंच गए जिनसे उतर कर हम गुफा के अंदर आए थे।
 
गुफा के बाहर चीड़ और देवदार के जंगल से ढंके पहाड़ थे वहीं गुफा के अंदर इनका कहीं नामों निशान तक नहीं था। जो जगह बाहर से दिखाई तक नहीं देती थी वह अंदर बहुत खुली और साफ-सुथरी थी। प्रकृति के इस अनुपम रहस्य से हमारा मन अभिभूत था। 

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