कुशल नेतृत्व से ब्रिटिश हुकूमत को दी टक्कर, बदला इतिहास

Edited By Punjab Kesari,Updated: 02 Jun, 2017 11:22 AM

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रानी अहिल्या बाई होल्कर एक ऐसा नाम है जिसे आज भी प्रत्येक भारतवासी बहुत श्रद्धा और आदर से स्मरण करता है। वह एक महान शासक और

रानी अहिल्या बाई होल्कर एक ऐसा नाम है जिसे आज भी प्रत्येक भारतवासी बहुत श्रद्धा और आदर से स्मरण करता है। वह एक महान शासक और मालवा की रानी थीं। अहिल्याबाई किसी बड़े राज्य की रानी नहीं थीं लेकिन अपने शासनकाल में उन्होंने जो कुछ किया वह आश्चर्यचकित करने वाला है। वह एक बहादुर योद्धा और कुशल तीरंदाज थीं। उन्होंने कई युद्धों में अपनी सेना का नेतृत्व किया और हाथी पर सवार होकर वीरता के साथ लड़ीं। 


उनका जन्म सन 1725 में हुआ था। दस-बारह वर्ष की आयु में उनका विवाह हुआ। महारानी अहिल्याबाई इतिहास-प्रसिद्ध सूबेदार मल्हार राव होल्कर के पुत्र खंडेराव की पत्नी थीं। 29 वर्ष की अवस्था में विधवा हो गईं। पति का स्वभाव चंचल और उग्र था। वह सब उन्होंने सहा। फिर जब 42-43 वर्ष की थीं, पुत्र मालेराव का देहांत हो गया। जब अहिल्याबाई की आयु 62 वर्ष के लगभग थी, दौहित्र नत्थू चल बसा। चार वर्ष पीछे दामाद यशवंत राव फणसे भी न रहे और इनकी पुत्री मुक्ताबाई सती हो गईं। अहिल्याबाई ने अपने राज्य की सीमाओं के बाहर भी भारत भर के प्रसिद्ध तीर्थों और स्थानों में मंदिर बनवाए, घाट बनवाए, कुंओं और बावडिय़ों का निर्माण करवाया, मार्ग बनवाए, भूखों के लिए सदाव्रत (अन्नक्षेत्र) खोले, प्यासों के लिए प्याऊ बिठलाईं, शास्त्रों के मनन-चिंतन और प्रवचन हेतु मंदिरों में विद्वानों की नियुक्ति की।


उन्होंने काशी, गया, सोमनाथ, अयोध्या, मथुरा, हरिद्वार, द्वारिका, बद्री नारायण, रामेश्वर, जगन्नाथपुरी इत्यादि प्रसिद्ध तीर्थस्थानों पर मंदिर बनवाए और धर्मशालाएं खुलवाईं। वह भगवान शिव की अनन्य भक्त थीं, इसलिए उन्होंने 1777 में विश्व प्रसिद्ध काशी विश्वनाथ मंदिर का निर्माण कराया। कहा जाता है कि रानी अहिल्याबाई के स्वप्न में एक बार भगवान शिव आए।


सही मायनों में समाज सुधारक गतिविधियों की शुरूआत अंग्रेज शासनकाल में महात्मा फुले ने की। इसी आदर्श को लेकर छत्रपति शाहू महाराज, डा. बाबा साहेब अम्बेदकर, रामासामी पेरियार, नारायण गुरु, अण्णाभाऊ साठे, कर्मवीर भाऊराव पाटिल ने भी समाज सुधार के कार्य किए। इसके पहले धर्म की सत्ता गिने चुने लोगों के हाथ में थी। भारतीय स्त्री किसी भी धर्म या जाति की हो, उसके साथ निम्र व्यवहार किया जाता था। पति के साथ सती होना ही उसके लिए पुण्य का काम था। महाराष्ट्र में पेशवाई शासन में हिन्दवी स्वराज्य की धूमधाम थी। ऐसे समय में महान क्रांतिकारी महिला शासिका महारानी अहिल्याबाई होल्कर का उद्भव हुआ।


अहिल्याबाई का जन्म 31 मई 1725 को अहमदनगर जिले के चौंड़ी गांव में हुआ था। अटक के पार शिवराया की हिन्दवी पताका फहराने वाले तथा मध्य प्रदेश में हिन्दवी स्वराज्य के संस्थापक महान योद्धा मल्हारराव होल्कर इनके ससुर थे। इन्होंने प्रजाहितकारी व सुख शांति पूर्ण राज्य की स्थापना की। राज्य के उत्तराधिकारी खंडेराव होल्कर की मृत्यु हो गई। धर्म और रुढि़ के अनुसार अहिल्याबाई के सती होने की नौबत आ गई, किन्तु जनता के हितार्थ निर्माण किए गए राज्य को पेशवा के हाथों में चले जाने पर प्रजा को होने वाले भयंकर कष्ट को देखते हुए मल्हारराव होल्कर ने धर्म की पाखंडी परंपरा तोड़ते हुए अहिल्याबाई को सती होने से रोका और राज्य की बागडोर भी अहिल्याबाई को सौंपने का निर्णय लिया।


लोकनिंदा की परवाह न करते हुए अहिल्याबाई ने धर्म के पाखंड के विरुद्ध यह पहला विद्रोह किया। धर्म के नाम पर भारतीय स्त्री को शिक्षा व राज्य करने का अधिकार नहीं था। इसके विरुद्ध भी अहिल्याबाई ने दूसरा विद्रोह करते हुए राज्य की सत्ता स्वयं संभाल ली। यही नहीं ससुर, पति, पुत्र की मृत्यु होने पर भी धैर्य न खोते हुए उन्होंने राज्य का सफल संचालन किया। प्रजा को कष्ट देने वालों को पकड़कर उन्हें समझाने की कोशिश की तथा उन्हें जीवनयापन के लिए जमीनें देकर सुधार के रास्ते पर लाया गया, जिसके फलस्वरूप उनके जीवन सुखी व समृद्ध हुए। 


प्रजा से न्यूनतम कर वसूला गया ताकि प्रजा को कर बोझ समान न लगे। कर से प्राप्त धन का उपयोग केवल प्रजाहित के कार्यों में ही किया गया। अहिल्याबाई का मानना था कि धन और प्रजा ईश्वर की दी हुई वह धरोहर स्वरूप निधि है, जिसकी मैं मालिक नहीं बल्कि उसके प्रजाहित में उपयोग की जिम्मेदार संरक्षक हूं।


उत्तराधिकारी न होने की स्थिति में अहिल्याबाई ने प्रजा को दत्तक लेने का व स्वाभिमानपूर्वक जीने का अधिकार दिया। प्रजा के सुख-दुख की जानकारी वह स्वयं प्रत्यक्ष रूप से प्रजा से मिल कर लेती थीं तथा न्यायपूर्वक निर्णय देती थीं। उनके राज्य में जाति भेद को कोई मान्यता नहीं थी। सारी प्रजा समान रूप से आदर की हकदार थी। इसका असर यह था कि अनेक बार लोग निजामशाही व पेशवाशाही शासन छोड़कर उनके राज्य में आकर बसने की इच्छा स्वयं व्यक्त किया करते थे। 


अहिल्याबाई के राज्य में प्रजा पूरी तरह सुखी व संतुष्ट थी क्योंकि उनके विचार में प्रजा का संतोष ही राज्य का मुख्य कार्य होता है। लोकमाता अहिल्या का मानना था कि प्रजा का पालन संतान की तरह करना ही राजधर्म है। यदि किसी राज्य कर्मचारी ने या उसके नजदीकी परिवारी ने प्रजा से धनवसूली की तो उस कर्मचारी को तुरंत सजा देकर उसे अधिकार विहीन कर दिया जाता था। 


सभी प्रजाजनों को न्याय मिले, इसके लिए उन्होंने गांवों में पंचायती व्यवस्था, कोतवालों की नियुक्ति, पुलिस की व्यवस्था, न्यायालयों की स्थापना तथा राजा को प्रत्यक्ष मिलकर न्याय दिए जाने की व्यवस्था की थी।
 

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