Edited By Niyati Bhandari,Updated: 18 Jun, 2024 07:44 AM
बलिदानों की धरती भारत में ऐसे-ऐसे वीरों ने जन्म लिया है, जिन्होंने अपने रक्त से देश प्रेम की अमिट गाथाएं लिखीं। वीरांगना
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चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी।
Rani Laxmi Bai Death Anniversary: बलिदानों की धरती भारत में ऐसे-ऐसे वीरों ने जन्म लिया है, जिन्होंने अपने रक्त से देश प्रेम की अमिट गाथाएं लिखीं। वीरांगना नाम सुनते ही हमारे मन-मस्तिष्क में रानी लक्ष्मीबाई की छवि उभर आती है। वह भारतीय महिलाओं के समक्ष अपने जीवनकाल में ही ऐसा आदर्श स्थापित करके विदा हुईं, जिससे हर कोई प्रेरणा ले सकता है। रानी लक्ष्मीबाई को अपने राज्य और राष्ट्र से एकात्म स्थापित करने वाला प्यार था। उन्होंने यह घोषणा की थी कि मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी। उन्होंने सिर्फ 29 वर्ष की आयु में अंग्रेज साम्राज्य की सेना से वीरता से युद्ध किया और रणभूमि में वीरगति को प्राप्त हुईं।
Rani Laxmi Bai biography: लक्ष्मीबाई का जन्म वाराणसी में 19 नवंबर, 1828 को हुआ था। उनका बचपन का नाम मणिकर्णिका था लेकिन प्यार से उन्हें मनु कहा जाता था। उनके पिता मोरोपंत तांबे एक मराठी थे जो पेशवा बाजीराव द्वितीय की सेवा में थे। बचपन में ही इनकी मां भागीरथी बाई की मृत्यु हो गई। अब घर में मनु की देखभाल के लिए कोई नहीं था, इसलिए पिता मनु को अपने साथ पेशवा के दरबार में ले जाने लगे, जहां चंचल और सुन्दर मनु को सब लोग प्यार से ‘छबीली’ कहकर बुलाने लगे।
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Rani of Jhansi: मनु ने बचपन में शास्त्रों के साथ शस्त्र की शिक्षा भी ली। 7 साल की उम्र में ही घुड़सवारी सीख ली थी और इसके साथ ही मनु तलवार चलाने से लेकर धनुर्विद्या आदि में भी निपुण हो गई थी। 1850 में झांसी के महाराजा गंगाधर राव से मणिकर्णिका का विवाह हुआ और वह झांसी की रानी बनीं। विवाह के बाद उनका नाम लक्ष्मीबाई रखा गया। एक वर्ष बाद ही उनको पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई लेकिन चार माह पश्चात ही उस बालक का निधन हो गया।
राजा गंगाधर राव को इससे इतना गहरा धक्का पहुंचा कि वह फिर स्वस्थ न हो सके और 21 नवंबर, 1853 को चल बसे। राजा गंगाधर राव ने अपने जीवनकाल में ही अपने परिवार के बालक दामोदर राव को दत्तक पुत्र मानकर अंग्रेज सरकार को सूचना दे दी थी। परंतु लॉर्ड डलहौजी ने गोद की नीति के अंतर्गत दत्तक पुत्र दामोदर राव का उत्तराधिकार पर दावा अस्वीकृत कर दिया। झांसी को अंग्रेजी राज में मिलाने की घोषणा कर ब्रितानी अधिकारियों ने राज्य का खजाना जब्त कर लिया और उनके पति के कर्ज को रानी के सालाना खर्च में से काटने का फरमान जारी कर दिया।
सूचना पाते ही रानी के मुख से यह वाक्य प्रस्फुटित हो गया, मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी। यहीं से भारत की प्रथम स्वाधीनता क्रांति का बीज प्रस्फुटित हुआ। इसके परिणामस्वरूप रानी को झांसी का किला छोड़कर रानीमहल में जाना पड़ा पर रानी लक्ष्मीबाई ने हिम्मत नहीं हारी और उन्होंने हर हाल में झांसी राज्य की रक्षा करने का निश्चय किया। समस्त देश में सुसंगठित और सुदृढ़ रूप से क्रांति को कार्यान्वित करने की तिथि 31 मई, 1857 निश्चित की गई लेकिन इससे पूर्व ही 7 मई को मेरठ में तथा 4 जून, 1857 को कानपुर में क्रांति की ज्वाला प्रज्वलित हो गई। कानपुर तो 28 जून, 1857 को पूर्ण स्वतंत्र हो गया। अंग्रेजों के कमांडर सर ह्यूरोज ने अपनी सेना को सुसंगठित कर विद्रोह दबाने का प्रयत्न किया। उन्होंने सागर, गढ़ाकोटा, शाहगढ़, मदनपुर, मड़ीखेड़ा, वानपुर और तालबेहट पर नृशंसता पूर्ण अत्याचार करते हुए झांसी की ओर अपना कदम बढ़ाया।
लक्ष्मीबाई पहले से ही सतर्क थीं। 23 मार्च, 1858 को झांसी का ऐतिहासिक युद्ध आरंभ हुआ। कुशल तोपची गुलाम गौस खां ने रानी के आदेशानुसार तोपों के लक्ष्य साधकर ऐसे गोले फेंके कि पहली बार में ही अंग्रेजी सेना के छक्के छूट गए। रानी लक्ष्मीबाई ने सात दिन तक वीरतापूर्वक झांसी की सुरक्षा की और अपनी छोटी-सी सशस्त्र सेना के साथ अपनी पीठ के पीछे दामोदर राव को बांधकर घोड़े पर सवार हो अंग्रेजों का बड़ी बहादुरी से मुकाबला किया।
सरदारों का आग्रह मानकर रानी ने कालपी प्रस्थान किया। वहां जाकर वह शांत नहीं बैठीं। रानी की वीरता और साहस का लोहा अंग्रेज मान गए, लेकिन उन्होंने रानी का पीछा किया। रानी का घोड़ा बुरी तरह घायल हो गया, लेकिन उन्होंने साहस नहीं छोड़ा। रानी ने ग्वालियर पर आक्रमण किया और वहां के किले पर अधिकार कर लिया। ह्यूरोज अपनी सेना के साथ रानी का पीछा करता रहा।
Death of the Rani of Jhansi: रानी लक्ष्मीबाई इस युद्ध में भी वीरता का परिचय देती रहीं। 18 जून, 1858 को ग्वालियर का अंतिम युद्ध हुआ और रानी ने सेना का कुशल नेतृत्व किया। वह घायल हो गईं और अंतत: वीरगति प्राप्त की। रानी लक्ष्मीबाई ने आजादी के संघर्ष में जीवन की आहूति देकर जनता जनार्दन को चेतना प्रदान की और स्वतंत्रता के लिए बलिदान का संदेश दिया। जब वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई का अंतिम समय आया, तब ग्वालियर की भूमि पर स्थित गंगादास की बड़ी शाला में रानी ने संतों से कहा कि कुछ ऐसा करो कि मेरा शरीर अंग्रेज न छू पाएं।
इसके बाद रानी स्वर्ग सिधार गई और बड़ी शाला में स्थित एक झोपड़ी को चिता का रूप देकर रानी का अंतिम संस्कार कर दिया गया।