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भगवान ने स्वयं कहा है, ये काम करने वाला व्यक्ति मेरे धाम अवश्य आएगा

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 04 Jan, 2025 12:10 PM

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Religious Katha: ईर्ष्या, द्वेष, छल, कपट, बेईमानी एवं आडम्बरयुक्त इस दुनिया में यदि कहीं निश्छल और नि:स्वार्थ प्रेम है तो वह है-माता-पिता का प्रेम। इस प्रतिस्पर्धा के युग में जब मनुष्य रंग, रूप, बल, धन, उन्नति आदि में सर्वश्रेष्ठ बनना चाहता है,...

Religious Katha: ईर्ष्या, द्वेष, छल, कपट, बेईमानी एवं आडम्बरयुक्त इस दुनिया में यदि कहीं निश्छल और नि:स्वार्थ प्रेम है तो वह है-माता-पिता का प्रेम। इस प्रतिस्पर्धा के युग में जब मनुष्य रंग, रूप, बल, धन, उन्नति आदि में सर्वश्रेष्ठ बनना चाहता है, माता-पिता ही ऐसे हैं जो हमेशा यह चाहते हैं कि मेरी संतान हर तरह से मुझसे श्रेष्ठ हो। केवल चाहते ही नहीं, बल्कि इसके लिए हर संभव प्रयास भी करते हैं।

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पुत्र के भविष्य में होने वाले दुखों के निराकरण के लिए अपने वर्तमान तथा भविष्य के सभी सुखों की आहुति दे देने वाले माता-पिता की सेवा से विमुख संतान से भगवान किसी भी प्रकार के धर्मानुष्ठान द्वारा प्रसन्न नहीं होते। मनुष्यों के जन्म लेने में, उनका पालन-पोषण करने में माता-पिता जो दुख सहन करते हैं, उसका बदला सौ वर्षों में भी नहीं चुकाया जा सकता।

शास्त्रों तथा पुराणों में तैंतीस कोटि देवताओं का उल्लेख मिलता है। उनमें से प्राय: सभी देवी-देवता ऐसे हैं जिनका हमें साक्षात दर्शन नहीं होता। पुराण इत्यादि में पढ़कर ही उनके स्वरूप की भावना करते हैं और उसी के आधार पर उनकी प्रतिमा बनाकर उनका पूजन करते हैं।

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ऐसे देवता जिनसे हम अपने सामने बात कर सकते हैं। अपनी बात कहकर उनसे उसका उत्तर जान सकते हैं। उनकी साक्षात पूजा कर सकते हैं, उन्हें स्नान करा सकते हैं, दूध पिला सकते हैं, चाहें तो प्रतिदिन छप्पन भोग लगा सकते हैं, चरण धोकर चरणामृत पी सकते है, उनकी इच्छा जान सकते हैं, रूठ जाने पर आसानी से मना सकते हैं, ऐसे भगवान को हम प्रत्यक्ष रूप से प्रतिदिन देखते हैं।

ऐसे दो देवता हमारे घर में ही सदा निवास करते हैं और ऐसे सर्वोत्तम देवताओं का नाम है-परम पिता स्वरूप पिता जी एवं जगतजननी स्वरूपा माता जी।

इन दोनों को ठुकरा कर, अपमानित कर यदि कोई व्यक्ति पुण्यार्जन की दृष्टि से तीर्थ यात्रा पर निकल पड़ता है तो उसका श्रम निष्फल ही होता है। तीर्थ के देवता भी उससे प्रसन्न नहीं होते क्योंकि वह अपने वृद्ध माता-पिता की उपेक्षा कर यहां आया है।

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इसलिए घर के भगवान की सेवा सर्वोपरि है, माता-पिता की सेवा-सुश्रूषा के उपरांत उनको साथ लेकर और यदि वे जाना न चाहें या असमर्थ हों तो उनकी अनुमति लेकर मंदिर, तीर्थस्थान इत्यादि की यात्रा करना अच्छा है परन्तु उसकी आत्मा को दुखी कर तीर्थयात्रा यज्ञ, दान, भजन, कीर्तन सब निष्फल हैं।

वेद, शास्त्र और पुराणों का अवलोकन कर निष्कर्ष यही निकलता है कि माता-पिता के आशीर्वाद में हमें जो कुछ मिल सकता है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। इतिहास में ऐसे अनगिनत दुष्टांत दृष्टिगोचर होते हैं। भीष्म पितामह को इच्छामृत्यु का वरदान देने वाले ब्रह्मा, विष्णु, महेश इत्यादि देवता नहीं थे। वे उनके (भीष्म के) पिता शांतनु थे। देवव्रत (भीष्म)  की पितृभक्ति से संतुष्ट हो पिता शांतनु ने उन्हें कहा था कि हे पुत्र! मृत्यु तुम्हारे वश में होगी। ऐसा वरदान शायद ही किसी अन्य देवता ने किसी को दिया हो।

मर्यादापुरुषोत्तम श्री राम ने पिता दशरथ की आज्ञा मानकर अयोध्या राज्याभिषेक त्याग कर चौदह वर्ष का वनवास सहर्ष स्वीकार किया था। चक्रवर्ती महाराज ययाति के पुत्र पुरु ने अपने पिता की संतुष्टि के लिए अपनी जवानी देकर उनका बुढ़ापा स्वीकार कर लिया था।

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पंढरपुर में ईंट पर विट्ठल रूप में खड़ी भगवान की मूर्ति भी इसी सत्य का प्रतिपादन करती है कि परमात्मा अपनी सेवा से माता-पिता की सेवा को श्रेष्ठ मानते हैं।

महर्षि विश्वामित्र राजा दशरथ से श्री राम तथा लक्ष्मण को यज्ञ रक्षार्थ कुछ समय के लिए मांगने आए थे। मुनि वशिष्ठ के समझाने पर राजा दशरथ ने अपने दोनों पुत्र श्री राम एवं लक्ष्मण विश्वामित्र जी को सौंप दिए।
उस समय श्री राम द्वारा कहे गए वचन पिता की महत्ता को व्यक्त करते हैं, ‘‘पिता ही हमारे प्रभु हैं, ये ही हमारे सबसे बड़े देवता हैं। ये हमें जिसे सौंप देंगे, वही हमारा स्वामी हो जाएगा।’’

जहां माता-पिता की सेवा की चर्चा होती है, वहां सर्व प्रथम मातृ-पितृभक्त श्रवण कुमार का नाम बड़े आदर से लिया जाता है, जिसने नेत्र ज्योति से वंचित अपने माता-पिता को कांवड़ में बिठाकर, कांवड़ को अपने कंधे पर उठाकर सारे भारत का पैदल भ्रमण करके तीर्थयात्रा करवाई थी।

वनवास के समय प्यास से पीड़ित पांडवों ने सहदेव को पानी लेने तालाब पर भेजा। वहां यक्ष ने उससे कहा, ‘‘पहले मेरे प्रश्रों का उत्तर दो, बाद में पानी पीना।’’ लेकिन सहदेव ने उसके वचन की अवहेलना कर पानी पी ही लिया। पानी पीते ही वह मूर्च्छित होकर गिर पड़े। यही घटना क्रमश: नकुल, अर्जुन तथा भीम के साथ भी हुई। अंत में युधिष्ठिर से भी यक्ष ने यही कहा। युधिष्ठिर ने यक्ष के अनेक प्रश्रों के उत्तर दिए, जिनसे प्रसन्न हो यक्ष ने युधिष्ठिर के सभी भाइयों को पुन: जीवित कर दिया। यक्ष द्वारा किए गए प्रश्रों में चार प्रश्र ये भी थे:

भूमि से भारी कौन-सी चीज है? आकाश से भी ऊंचा कौन है? वायु से तेज गति किसकी है? तिनकों (घास) से अधिक फैलने वाली कौन-सी वस्तु है?
यक्ष के उक्त प्रश्नों के उत्तर युधिष्ठिर ने इस प्रकार दिए :

भूमि से बड़ी माता होती है। आकाश से भी ऊंचा स्थान पिता का है। वायु से भी तेज गति मन की है। तिनकों से भी अधिक फैलने वाली वस्तु चिंता है।
माता करुणा की साक्षात मूर्ति है। माता की गोद में जो सुख का अनुभव होता है, यह स्वर्ग में भी दुर्लभ है। रावण वध के बाद भगवान श्री राम ने लक्ष्मण को लंका भेजकर विभीषण का राज्याभिषेक करवाया था। उस समय विभीषण ने भगवान श्रीराम से लंका में चलने का आग्रह किया। स्वर्णमयी लंका की काफी प्रशंसा की।

लक्ष्मण ने भी लंका को अति सुंदर बताया तो श्री राम ने कहा, ‘‘हे लक्ष्मण! लंका स्वर्णमयी है। अति सुंदर भी है, किंतु मुझे वह उतनी सुंदर नहीं लगती क्योंकि जननी और जन्मभूमि मेरे लिए स्वर्ग से भी उत्तम है।’’

भगवान कहते हैं- जिसने एक वर्ष, एक मास, एक पक्ष, एक सप्ताह अथवा एक दिन भी माता-पिता की भक्ति की है, वह मेरे धाम को प्राप्त होता है-

दिनै के मासपक्षं वा पक्षाद्र्धं वापि वत्सरम्। पित्रोर्भक्ति : कृता येन से च गच्छेन्ममालयम्॥

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