Rewalsar- प्राकृतिक सौंदर्य, धार्मिक आस्था और ऐतिहासिक महत्व का स्थान

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 17 Jun, 2021 02:39 AM

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हिमाचल प्रदेश विभिन्न संस्कृतियों के सामंजस्य का प्रतीक है। इस प्रदेश के जिला मंडी के पश्चिम में लगभग 24 किलोमीटर पर स्थित एक छोटा-सा स्थान है रिवालसर। यह एक छोटा-सा कस्बा है जो

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Rewalsar in Himachal Pradesh- हिमाचल प्रदेश विभिन्न संस्कृतियों के सामंजस्य का प्रतीक है। इस प्रदेश के जिला मंडी के पश्चिम में लगभग 24 किलोमीटर पर स्थित एक छोटा-सा स्थान है रिवालसर। यह एक छोटा-सा कस्बा है जो शहर बनने की दौड़ में शामिल हो गया है। यह स्थान हिंदुओं, बौद्धों और सिखों के लिए आस्था का केंद्र है।

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Rewalsar history- पौराणिक आस्था के अनुसार यह स्थान महर्षि लोमश की तप:स्थली है। बौद्धों के अनुसार यह स्थान उनके गुरु पद्मसम्भव की तपस्या का स्थान है। सिखों के गुरु गोबिंद सिंह जी का यहां पर आगमन हुआ था। उन्होंने पहाड़ी राजाओं की एक महत्वपूर्ण बैठक को यहीं संबोधित किया था। रिवालसर अपने प्राकृतिक सौंदर्य, धार्मिक आस्थाओं और ऐतिहासिक महत्व के कारण एक विशेष स्थान रखता है।

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Rewalsar monastery बौद्धों का गुरुकुल 
रिवालसर में अब तो बौद्धों का एक गुरुकुल भी खुल गया है तथा अन्य मंदिरों का निर्माण भी हो रहा है, मगर सबसे प्राचीन मंदिर झील के पश्चिम में है। इस भव्य, विशाल और प्राचीन मंदिर को ‘मणि पाणि’ मंदिर कहा जाता है। इस बौद्ध मदिर की स्थापना सन् 1910-15 ई. के मध्य हुई बताई जाती है। उसके बाद भी समय-समय पर इसके निर्माण में सुधार होता रहा है।  

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Rewalsar mela मेलों का महत्व
यहां के मेलों का भी अपना एक विशेष महत्व है। यूं तो लोक आस्थाओं पर आधारित यहां पर अनेक छोटे-मोटे आयोजन होते ही रहते हैं, मगर बैसाखी और छेश्चू के मेले विशेष स्थान रखते हैं। बैसाखी को स्थानीय लोग बसोआ कहते हैं जबकि छेश्चू मुख्य रूप से बौद्धों का त्यौहार है। छेश्चू मेले का आयोजन भव्य ‘मणि पाणि’ मंदिर व इसके प्रांगण में होता है। छेश्चू मेला बौद्धों के प्रमुख गुरु पद्मसम्भव की कृपा प्राप्त करने के लिए तथा उनके उपदेशों पर चलने की प्रेरणा प्राप्त करने के लिए मनाया जाता है। यूं तो मेले की परम्परा बहुत पहले से ही है, मगर 1960 के बाद विशेष रूप से इसका भव्य आयोजन किया जाने लगा।

इस संबंध में मंदिर के प्रमुख लामा एवं प्रबंधक नेजिक नांगियाल ने बताया कि इस मेले का आयोजन तिब्बत में भी किया जाता है। इसके अतिरिक्त इसी प्रकार के मेलों का आयोजन कांगड़ा, लद्दाख तथा भूटान में भी किया जाता है। कांगड़ा में इसे टासी जोंग, लद्दाख में हेमी गुम्बां या ठातर गुम्बा और भूटान में दोरजे ठोला का नाम दिया जाता है।

‘शिशु’ शब्द का शुद्ध उच्चारण ही ‘छेश्चू’ है। ‘छ’ का अर्थ पानी और ‘श्वचू’ का तात्पर्य मेले से होता है अर्थात ‘छेश्चू’ को ‘सर (पानी) का मेला’ भी कहते हैं। ‘मणि पाणि’ मंदिर में यूं तो प्रतिदिन ही तरह-तरह के वाद्यों के साथ पूजा-पाठ होता रहता है मगर इस मेले से पूर्व एक विशेष पूजा का आयोजन किया जाता है। इस पूजा में पवित्र मंत्रों का जाप किया जाता है। विशेष वाद्य यंत्रों के स्वर बिखेरे जाते हैं।  
इस विशेष पूजा को ‘डूंपचे’ संज्ञा दी जाती है। इसी विशेष पूजा की समाप्ति वाले दिन से मुख्य मेले का आयोजन किया जाता है।  

मेले से एक दिन पूर्व प्रथम मास की प्रथम तारीख को ‘लोसर’ का त्यौहार बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। बौद्ध लोग इसे नव-वर्ष का त्यौहार भी कहते हैं। इस दिन ये लोग बहुत ही खुशियां मनाते हैं। तरह-तरह की मिठाइयां और अपने विशेष व प्रचलित पकवान परिचितों और संबंधियों में बांट-बांट कर खाते हैं। अपने-अपने स्तर पर नाच गाने का आयोजन भी किया जाता है। माणि पाणि के मंदिर और अपने-अपने घरों को दीप मालाओं से सजाया जाता है।

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सुंदर और आकर्षक कार्यक्रम 
डूंपचे पूजा की समाप्ति पर बहुत ही सुंदर और आकर्षक कार्यक्रम की व्यवस्था की जाती है। इसे देखने के लिए स्थानीय लोगों के अतिरिक्त बहुत दूर-दराज से लोग आते हैं। सभी मतों और जातियों के लोग इसका आनंद समान रूप से लेते हैं। यह आयोजन किसी महान विभूति की अध्यक्षता में सम्पन्न होता है।

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सर्वप्रथम दो विदूषक अपने चेहरे पर मुखौटा ओढ़े लोगों को बिठाने आदि की व्यवस्था करने में जुटे होते हैं। हंसी-मजाक के साथ व्यवस्था को ठीक करने की कला कोई इन महानुभावों से सीखे। फिर मुख्यातिथि के सामने जमीन पर बैठे संगीतज्ञों द्वारा अति मनमोहक धुनें बजाई जाती हैं। इसी बीच मंदिर के मुख्य द्वार से लामा लोग अपने चेहरों पर तरह-तरह के मुखौटे पहन कर आते हैं और प्रागंण में आकर नाचने लगते हैं। उनकी ताल, लय और हाव-भाव बस देखते ही बनते हैं। कभी वाद्य यंत्रों पर धीरे-धीरे और कभी तेज लय पर नाचना और अन्य लामाओं द्वारा कुछ मुख्य प्रक्रियाएं करते रहना बहुत ही आकर्षक और सुव्यवस्थित लगता है। पहले वाले नृतकों के भीतर जाने के कुछ क्षणों के बाद ही उनके स्थान पर और नर्तक तरह-तरह के मुखौटे लगाकर आते हैं और अलग-अलग तरह का नृत्य करते चले जाते हैं। इसी तरह क्रम से सुंदर वाद्यों धुनों पर नाचना और वापस जाना लगा रहता है।  

फिर मंदिर के भीतर से सितार हाथ में लेकर तारा देवी का आगमन होता है। कहते हैं कि तारा देवी मंडी के तात्कालीन राजा की पुत्री मान्धर्वा ही हैं जिनके साथ गुरु पद्मसम्भव के प्रेम संबंध होने की अफवाह एक ग्वाले ने उड़ाई थी तथा राजा ने अपनी इस कन्या को अंधे कुएं में फैंकने की सजा देने के साथ-साथ गुरु को जीवित जलाने का आदेश भी दिया था। सभी कार्यक्रमों के अंत में आयोजक शोभायात्रा की तैयारी में लग जाते हैं।

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Rewalsar Lake Mandi Himachal Pradesh झील की परिक्रमा
रिवालसर झील के चारों ओर पक्की सड़क बनी हुई है। इस सड़क पर चलते हुए झील की परिक्रमा को बौद्ध लोग बड़े ही पुण्य का कार्य मानते हैं। इसे वे ‘कोरा डोजे’ की संज्ञा देते हैं। शोभायात्रा भी झील के चारों ओर परिक्रमा करती है। यह शोभायात्रा मंदिर के मुख्य द्वार से निकलती है। गुरु पद्मसंभव जी की प्रतिमा को एक सुसज्जित पालकी में रखा जाता है। अपनी-अपनी उपाधियों के आधार पर लामा गुरु क्रम से इस पालकी को उठाते हैं। 

एक सौ आठ कुंजेरों (धार्मिक ग्रंथों) को नए सुंदर वस्त्रों में बांधा जाता है तथा इन्हें भी बड़े सम्मान के साथ इस शोभायात्रा में पवित्र झील की परिक्रमा कराई जाती है। लामा लोगों ने इन्हें अपने सिरों पर उठाया होता है। शोभायात्रा को तिब्बत में ‘सेण्डा’ कहा जाता है। शोभायात्रा के आगे-आगे सुसज्जित वाद्य पार्टी मधुरतम धुनें बजाती हुई चलती है।

यह शोभायात्रा अपनी शानो-शौकत के साथ ज्यों-ज्यों आगे बढ़ती है, त्यों-त्यों यह इंद्रपुरी के देवताओं अथवा अशोक काल के किसी बौद्धविहार के धर्माधीशों अथवा दरबार के महामात्यों के समान प्रतीक होती है। सड़क के दोनों ओर खड़े श्रद्धालु अपनी-अपनी टोपियां उतारकर बड़ी श्रद्धा के साथ धर्मग्रंथों के आगे अपना सिर झुकाते हैं। इसे वे गुरु का एक बहुत बड़ा आशीर्वाद मानते हैं। शोभायात्रा मंदिर में आकर समाप्त हो जाती है। 

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