द्वारिका में श्रीकृष्ण के साथ नहीं होती देवी रुक्मिणी की पूजा

Edited By Lata,Updated: 19 Dec, 2019 03:01 PM

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हिंदू धर्म में हर देवी-देवता के बहुत सारे मंदिर विख्यात हैं। ऐसे ही रास रचाने वाले हमारे भगवान कृष्ण व

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हिंदू धर्म में हर देवी-देवता के बहुत सारे मंदिर विख्यात हैं। ऐसे ही रास रचाने वाले हमारे भगवान कृष्ण व राधा रानी जी के बहुत से मंदिर स्थापित हैं। हिंदू धर्म में हर कोई राधा व कृष्ण की पूजा एकसाथ करता है। ऐसा भी कहा जाता है कि राधा जी के बिना कृष्ण अधूरे मानें जाते हैं। इसलिए उनके नाम से पहले राधा जी का नाम लिया जाता है। ऐसे ही श्री कृष्ण की पत्नी देवी रुक्मिणी के बारे में तो सब जानते ही होंगे। इनका नाम तो कृष्ण के साथ जुड़ा है, लेकिन बहुत कम लोग कृष्ण व रुक्मिणी जी की पूजा के बारे में जानते हैं। 
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बचपन से ही हम सब सुनते आ रहे हैं कि कृष्ण का विवाह रुक्मिणी से हुआ था। यानि उनका पहला विवाह रुक्मिणी से, उसके पश्चात सत्यभामा, जाम्बवती तथा अन्य से हुआ था। वैसे तो सभी स्थानों व मंदिरों में कृष्ण के साथ राधा रानी का पूजन होता है। लेकिन मथुरा के द्वारकाधीश मंदिर व महाराष्ट्र के पंढरपुर नामक गांव में विट्ठल रुक्मिणी मंदिर है, जहां कृष्ण के साथ रुक्मिणी जी के साथ पूजा जाता है। ये 2 मंदिर ही ऐसे हैं पूरे देश में जहां इन दोनों की पूजा होती है। आज हम आपको बताने जा रहे हैं एक ऐसे मंदिर के बारे में जहां केवल देवी रुक्मिणी की पूजा ही होती है। 

द्वारका के द्वारकाधीश मंदिर से 2 की.मी. की दूरी पर देवी रुक्मिणी का मंदिर, रुक्मिणी मंदिर नाम से स्थित है। आपको जानकर हैरानी होगी कि यह मंदिर द्वारका की सीमा में न होते हुए नगर के बिल्कुल बाहर बना हुआ है। स्थानीय लोगों का कहना है कि ये 12 वीं. शताब्दी में बनवाया गया है। वर्तमान में यहां केवल यह एक मंदिर है व समीप ही एक छोटा जल स्त्रोत है। मंदिर के भीतर प्रवेश करते ही रुक्मिणीजी की मनमोहक छवि इंसान का मन मोह लेती है। रुक्मिणी देवी मंदिर परिसर में एक और मंदिर भी है, जो अम्बा देवी को समर्पित था। जोकि श्रीकृष्ण जी की कुलदेवी थी। द्वारका के मुख्य मंदिरों से भले ही छोटा हो किन्तु रुक्मिणी देवी के समान उनका मंदिर भी अपने आप में अनोखा है। 
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कथा
पौराणिक कथा के अनुसार यादवों के कुलगुरु, ऋषी दुर्वासा का आश्रम द्वारका से कुछ दूरी पर, पिंडारा नामक स्थान में था। एक बार श्रीकृष्ण व रुक्मिणी के मन में उनका अतिथी सत्कार करने की इच्छा उत्पन्न हुई। वे दोनों अपने रथ में सवार होकर ऋषी को निमंत्रण देने उनके आश्रम पहुंचे। ऋषि दुर्वासा का चिड़चिड़ा स्वभाव तथा क्रोध किसी के छुपा नहीं है। दुर्वासा ऋषि ने कृष्ण रुक्मिणी का आमंत्रण स्वीकार तो किया किन्तु एक शर्त भी रख दी। शर्त थी कि उन्हें ले जाने वाले रथ को न तो घोड़े हांकेंगे न ही कोई अन्य जानवर। बल्कि रथ को केवल कृष्ण व रुक्मिणी हांकेंगे। कृष्ण व रुक्मिणी ने उनकी मांग सहर्ष स्वीकार कर ली।
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चूंकि रुक्मिणी एक रानी थी, इन्हें रथ हांकने का कोई अनुभव नहीं था। कुछ समय पश्चात वे थक गईं व प्यास से उनका कंठ सूखने लगा। स्थिति को भांप कर कृष्ण ने शीघ्र अपने दाहिने चरण का अंगूठा धरती पर दबाया और वहीं गंगा नदी प्रकट हो गईं। यहां रुक्मिणी से एक बड़ी भूल हो गई कि उन्होंने दुर्वासा मुनि से जल ग्रहण का आग्रह करना भूल गई और स्वयं ही जल ग्रहण कर लिया। यह देख दुर्वासा मुनि कुपित हो गए। उन्होंने तुरंत ही कृष्ण व रुक्मिणी को अलग होने का श्राप दे डाला। यही कारण है कि रुक्मिणी का मंदिर कृष्ण मंदिर से दूर बनाया गया है। मानों वे अब भी दुर्वास मुनि के श्राप को जी रहे हों।

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