Edited By Niyati Bhandari,Updated: 14 Jun, 2021 02:55 PM
‘पंजा साहिब’ सिख इतिहास से संबंधित सबसे महत्वपूर्ण स्थानों में से एक है। इस स्थान का नाम ‘हसन अबदाल’ रहा है। यह अब पाकिस्तान में है और रावलपिंडी के निकट (लगभग 35-40 किलोमीटर दूर) है।
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‘पंजा साहिब’ सिख इतिहास से संबंधित सबसे महत्वपूर्ण स्थानों में से एक है। इस स्थान का नाम ‘हसन अबदाल’ रहा है। यह अब पाकिस्तान में है और रावलपिंडी के निकट (लगभग 35-40 किलोमीटर दूर) है।
वली कंधारी का गर्व-दलन
प्रथम पातशाह श्री गुरु नानक देव जी अपनी तीसरी उदासी के दौरान मक्का-मदीना तथा बगदाद से लौटते हुए इस स्थान पर आए थे। यहां एक ऊंची पहाड़ी थी। इस पहाड़ी की चोटी पर एक फकीर वली कंधारी रहता था। गुरु जी ने विश्राम करने के लिए पहाड़ी के नीचे आसन जमाया।
पूरे इलाके में आस-पास कहीं पानी नहीं था। सिर्फ एक चश्मा था जो पहाड़ी की चोटी पर था और उस चश्मे पर वली कंधारी का कब्जा था। उस चश्मे से पानी लेने से पहले हर आदमी को पहले वली कंधारी से इजाजत लेनी पड़ती थी। अत्यंत क्रोधी और घमंडी वली कंधारी किसी को सीधे मुंह पानी नहीं लेने देता था।
उधर गुरु जी के पास बैठे भाई मरदाना जी को तेज प्यास लगी। वह पानी के लिए उस पहाड़ी की चोटी पर पहुंचे। अहंकारी वली कंधारी ने उन्हें पानी लेने से रोक दिया। बार-बार विनती करने पर भी उस पर कोई असर न हुआ। हार कर भाई मरदाना जी गुरु जी के पास लौट आए।
गुरु जी ने भाई मरदाना जी को प्यास से बेहाल होते देखा तो ‘सति करतार’ कहकर भाई मरदाना जी को पास पड़ी एक शिला को उठाने को कहा। पत्थर उठते ही वहां शीतल जल का एक झरना फूट पड़ा। भाई मरदाना ने जी भरकर पानी पिया।
उधर वली कंधारी का झरना सूखना शुरू हो गया। यह देखकर घमंडी वली कंधारी बहुत क्रोधित हो उठा और उसने गुस्से में आकर एक बहुत बड़ा पत्थर पहाड़ी की चोटी से श्री गुरु नानक देव जी की ओर लुढ़का दिया। गुरु जी ने उस गिरती हुई चट्टान को हाथ का पंजा लगाकर रोक दिया। यह कौतुक देखकर वली कंधारी का घमंड चूर-चूर हो गया। वह दौड़कर गुरु जी के चरणों में आ गिरा और अपनी धृष्टता की क्षमा मांगी।
गुरु जी के पवित्र पंजे के निशान वाला यह पत्थर आज भी वहां मौजूद है। बाद में गुरु जी के चश्मे और उस पत्थर के निकट गुरुद्वारा साहिब निर्मित किया गया जो आज पवित्र ‘गुरुद्वारा पंजा साहिब’ कहलाता है।
गुरुद्वारा प्रबंध सुधार लहर एवं गुरुद्वारा
पंजा साहिब
गुरुद्वारा पंजा साहिब के नाम महाराजा रणजीत सिंह ने जागीर लगा दी थी। अन्य गुरुद्वारा साहिबान की भांति यहां का प्रबंध भी महंतों के हाथ में था। महंत जो इस गुरुधाम पर काबिज था, ने धीरे-धीरे गुरु घर की सारी जायदाद अपने नाम करा ली थी। 1920 ई. में महंत की मौत हो गई।
उन्हीं दिनों भाई करतार सिंह झब्बर और भाई अमर सिंह रईस झबाल के नेतृत्व में सिखों का एक जत्था गुरुधाम को महंत से मुक्त कराने जा पहुंचा। नए महंत संत सिंह के विरोध के बावजूद 29 नवम्बर, 1920 ई. को इस पवित्र गुरुधाम को महंत के पंजे से मुक्त करा लिया गया।
साका पंजा साहिब
28 अक्तूबर, 1922 ई. को यहां एक और ऐसी घटना घटी जिसे ‘पंजा साहिब’ को दूसरी बार ऐतिहासिक महत्व प्रदान कर दिया। यह घटना ‘साका पंजा साहिब’ कहलाती है।
बीसवीं शताब्दी के प्रारंभिक वर्ष गुरुद्वारा प्रबंध सुधार लहर के वर्ष थे। समस्त गुरुद्वारा साहिबान लंबे समय से महंतों के कब्जे में थे। गुरुद्वारों की संपत्ति एवं चढ़ावे पर पल रहे ये महंत बेहद स्वार्थी और भ्रष्टाचारी हो गए थे।
सिख संगत चाहती थी कि सारे गुरुद्वारा साहिबान का प्रबंध सिखों द्वारा चुनी गई प्रबंधक कमेटी चलाए और गुरुधामों से प्राप्त आर्थिक एवं संगठनात्मक शक्ति का प्रयोग सिख समाज के समुचित विकास के लिए किया जा सके।
अंग्रेज सरकार की ओर से गुरुद्वारा एक्ट (1921 ई.) पारित हो जाने के बावजूद अनेक महंत गुरुद्वारा साहिबान को सिख समाज को सौंपने को तैयार न थे। ऐसे में सिख समाज मोर्चे लगा-लगाकर गुरुधामों को मुक्त करवा रहा था।
इसी आंदोलन के अंतर्गत जिला श्री अमृतसर में गुरुद्वारा गुरु का बाग का मोर्चा लगाया गया। यह पवित्र स्थान पंचम पातशाह श्री गुरु अर्जुन देव जी और नवम पातशाह श्री गुरु तेग बहादुर जी से संबंधित है। 22 अगस्त से 17 नवम्बर, 1922 ई. तक चले इस मोर्चे में 5500 सिख गिरफ्तार कर जेल भेज दिए गए।
इन सिखों में से एक जत्थे को अढ़ाई साल की सजा सुनाई गई और अटक जेल भेज दिया गया। 28 अक्तूबर को एक रेलगाड़ी इस जत्थे को लेकर पंजा साहिब रेलवे स्टेशन से होकर गुजरने वाली थी। पंजा साहिब की संगत को जब यह सूचना मिली कि भूखे-प्यासे सिंहों को कैदी बनाकर उस रेलगाड़ी से ले जाया जा रहा है तो संगत ने जत्थे को लंगर छकाना चाहा।
पंजा साहिब की संगत को यह बर्दाश्त नहीं था कि इस पावन धरती, जहां प्रथम पातशाह श्री गुरु नानक देव जी ने प्यासे भाई मरदाना जी की प्यास बुझाई थी, से भूखे-प्यासे सिख जत्थे को लेकर रेलगाड़ी आगे निकल जाए।
संगत दूध, फल, पानी, लंगर आदि लेकर स्टेशन पर पहुंच गई। स्टेशन मास्टर से प्रार्थना की गई कि वह कुछ समय के लिए रेलगाड़ी को रोक दे, ताकि जत्थे को लंगर छकाया जा सके परंतु यह प्रार्थना स्वीकार नहीं की गई।
पंजा साहिब की संगत अरदास कर भाई करम सिंह और भाई प्रताप सिंह के नेतृत्व में रेल की पटरी पर मोर्चा लगाकर बैठ गई। दोनों सिखों समेत अनेक रेलगाड़ी के नीचे कट कर शहीद हो गए। अंतत: रेलगाड़ी रोकनी पड़ी और दो घंटे तक रुकी रही। जत्थे को प्रेम से लंगर छकाकर ही आगे जाने दिया गया।
सिख इतिहास में यह घटना ‘साका पंजा साहिब’ नाम से प्रसिद्ध है।
आज का पंजा साहिब
बाद में सन् 1930-32 में इस पवित्र स्थान पर एक सुंदर गुरुधाम एवं सराय का निर्माण करा दिया गया था। यहां हर साल बैसाखी का मेला लगता था। चैत्र की चतुर्दशी और भादों की अमावस्या भी बड़े पैमाने पर मनाई जाती थी। यहां 22 आषाढ़ से पहली सावन तक जोड़ मेला भी लगता था। देश-विभाजन के बाद यह पवित्र गुरुधाम पाकिस्तान में रह गया। अब भी विभिन्न ऐतिहासिक दिवस के समय सिख श्रद्धालु जत्थे के रूप में यहां जाते हैं।