Edited By Jyoti,Updated: 13 Jun, 2022 02:47 PM
कबीर साहब का आविर्भाव वि.स. 1456 ईस्वी सन् 1398 ज्येष्ठ पूॢणमा, सोमवार को हुआ। इसी दिन काशी के जुलाहे नीरू अपनी नवविवाहिता नीमा का गौना करा कर अपने घर लौट रहे थे कि रास्ते में नीमा को प्यास लगी
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कबीर साहब का आविर्भाव वि.स. 1456 ईस्वी सन् 1398 ज्येष्ठ पूर्णिमा, सोमवार को हुआ। इसी दिन काशी के जुलाहे नीरू अपनी नवविवाहिता नीमा का गौना करा कर अपने घर लौट रहे थे कि रास्ते में नीमा को प्यास लगी। वहां लहरतारा तालाब था जहां नीमा पानी पीने के लिए गईं। अभी पानी पीने ही लगी थीं कि वहां कमल दल के गुच्छ पर किसी शिशु का रुदन सुनाई दिया। नीरू और नीमा आपसी सहमति से इस शिशु को घर ले गए जो बाद में संत कबीर हुए। जिस स्थान पर इन्हें पाया गया उसे प्रकटस्थली कहा जाता है जहां इनका प्रकटस्थली मंदिर बनाया गया। कबीर साहब के दर्शनों के लिए यहां देश-विदेश से कबीर पंथी व अन्य धर्मों के लोग आकर उनका आशीर्वाद लेते हैं।
मूल गादी कबीर चौरा मठ सिद्धपीठ काशी कबीर साहब की कर्मभूमि है। नीरू टीला कबीर का घर था जहां नीरू एवं नीमा रहते थे तथा वहीं सद्गुरू कबीर जी का लालन-पालन हुआ। कबीर साहब के माता-पिता कपड़ा बुनने का कार्य करते थे। बाद में कबीर साहब भी इस कार्य में निपुण होकर इसमें माता-पिता का हाथ बंटाने लगे परंतु उनका झुकाव परमार्थ की ओर था तथा उनमें गूढ़ तत्वों को समझ कर उनकी गहराई में जाने तथा उनका विवेचन करने की असाधारण योग्यता थी।
साधू भूखा भाव का, धन का भूखा नांहि।
धन का भूखा जो फिरै, सो तो साधु नांहि।।
कबीर साहब बताते हैं कि संत को अपने शिष्यों का प्रेम चाहिए धन नहीं, जो धन का भूखा है वह संत नहीं है।
एक जोति से सब उत्पना कौन बांम्हन कौन सूदा
आत्मा की कोई जाति नहीं है। सब जीव उस एक परम ज्योति से उत्पन्न हुए हैं न कोई ऊंचा है न नीचा, न कोई अच्छा है न बुरा।
जात नङ्क्षह जगदीश की, हरिजन की कहां होय।
जात-पात के कीच में, डूब मरो मत कोय।।
प्रभु की कोई जाति नहीं है तो उसके भक्तों की क्या जाति हो सकती है। कबीर जी उपदेश देते हैं कि इंसान को जात-पात के कीचड़ में नहीं फंसना चाहिए।
मन्हो कठोर मरै बानारस, नरक न बांचिआ जाई।
घर का संत मरै हाडंबै, त सगली सैन तराई।
कठोर हृदय पापी यदि बनारस में मरेगा तो भी वह नरक से नहीं बच सकेगा परन्तु भगवान के भक्त यदि मगहर में मरते हैं तो वे खुद ही मुक्त नहीं होते बल्कि अपने सब शिष्यों को भी तार लेते हैं।
सब धरती कागद करूं, लेखनि सब बनराय
सात समुंद की मसि करूं, हरि गुन लिखा न जाए।।
सब धरती को कागज, सम्पूर्ण वनों को लेखनी और सातों समुद्रों को स्याही बना कर भी यदि मैं हरि के गुणों को लिखना शुरू करूं तो भी उनके गुणों को लिखा नहीं जा सकता।
साखी आंखी ज्ञान की, समुझ देख मन मांहि
बिनु साखी संसार का, झगड़ा छुटत नांहि
कबीर साहब की साखियां हमारे जीवन की आंखें हैं। साखी के बिना हम अज्ञान के अंधकार में डूबे रहते हैं। साखी अज्ञानता के अंधकार को दूर करके उसे प्रकाश में बदलने का काम करती है। कबीर साहब ने इस संसार को समझने व जानने के लिए ज्ञान का रास्ता बताया है। दुनिया में झगड़ा इतना बढ़ गया है कि साखी ही झगड़े की जड़ हमारी अज्ञानता को दूर कर सकती है। दुनिया में अज्ञानता मिट जाए तो सारे झगड़े समाप्त हो जाएंगे।
कबीर साहब का ज्ञान मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार से दूर है। उनकी साखियां अज्ञानता को दूर कर सत्य का साक्षात्कार कराती हैं। कबीर साहब क्रांतिकारी व महान समाज सुधारक थे। अपना जीवन निर्गुण भक्ति में व्यतीत करते हुए उन्होंने समाज में फैले जात-पात और अंधविश्वास का विरोध किया। —राजेश कुमार भगत महंत मूलगादी कबीर चौकी मठ काशी