श्रीमद्भागवत गीता के अनुसार जानें, सात्विक और राजसिक भोजन में अंतर

Edited By Prachi Sharma,Updated: 31 Dec, 2024 12:29 PM

satvik and rajasik food

तीनों प्रकृति वाले प्राणियों का प्रिय भोजन भी उनकी प्रकृति पर निर्धारित तीन अलग प्रकार का होता है। यज्ञ, तप और दान भी इन्हीं तीन प्रकार के होते हैं। श्रीकृष्ण कहते हैं, इनके विषय में जो ज्ञान है वो अब मुझसे सुनो।

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आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः| यज्ञस्तपस्तथा दानं तेषां भेदमिमं शृणु || भगवद गीता, अध्याय १७, पद्य ७||

तीनों प्रकृति वाले प्राणियों का प्रिय भोजन भी उनकी प्रकृति पर निर्धारित तीन अलग प्रकार का होता है। यज्ञ, तप और दान भी इन्हीं तीन प्रकार के होते हैं। श्रीकृष्ण कहते हैं, इनके विषय में जो ज्ञान है वो अब मुझसे सुनो।

पहले सत्व, रजस और तमस इन तीनों गुणों के विषय पर चर्चा की थी। हमने यह भी जाना था कि किस प्रकार सत्त्व गुण हमें उच्च लोकों की ओर ले जाता है, रजस हमें पृथ्वीलोक पर जन्ममृत्यु के पीड़ादयी चक्र में बांध देता है और तमस हमें निम्न लोक एवं नर्क की ओर लेकर जाता है।

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भगवद गीता के अनुसार भोजन, यज्ञ, तप और दान की भी सत्त्व, रजस और तमस गुणों के अनुरूप तीन श्रेणियां होती हैं। जिस भोजन को ग्रहण करने से आरोग्य, शारीरिक बल, बुद्धि, तथा दीर्घायु की प्राप्ति हो, वह भोजन सात्विक प्रकृति के लोगों को प्रिय होता है। जिस भोजन को ग्रहण करने से रोग, व्यथा तथा पीड़ा की प्राप्ति होती है वह राजसिक प्रकृति के लोगों को प्रिय होता है। जो भोजन अशुद्ध, बासी, दूषित और अनैसर्गिक रीति से पकाया गया होता है वह तामसिक प्रकृति के लोगों को भाता है।

हम जिस प्रकार के भोजन का सेवन करते हैं, उसी से हमारी वास्तविकता निर्धारित होती है। अगर हम लाल मांस का उदाहरण लें, खास तौर से ऐसीं गायों का लाल मांस जो कि प्लास्टिक, कूड़े और अस्पताल से निकलने वाले कचरे का सेवन करतीं हैं, ऐसीं गायों से मिलने वाला मांस और दूध, दोनो ही भारी मात्रा में अम्लीय होता है, उसमें जहरीले पदार्थ होते हैं और इसीलिए वह तामसिक है।

ऐसे अम्लीय भोजन के सेवन से कोशिकाओं का संक्षारण होता है जिसके परिणामस्वरूप शरीर विनाश और रोग की ओर बढ़ने लगता है। वर्ष 1912 में अलेक्सिस करेल नामक वैज्ञानिक ने प्रयोग करके यह सिद्ध किया था कि जब मुर्गी की कोशिकाओं को क्षारीय घोल में रखा गया तो सामन्यतर 6-7  साल तक जीवित रहने वाली कोशिकाएं 20 साल से अधिक समय तक जीवित रहीं। जब एक दिन उस वैज्ञानिक का सहकारी पुराने क्षारीय घोल को नए क्षारीय घोल से बदलना भूल गया तो वह घोल अम्लीय हो गया और कोशिकाएं मृत हो गईं; जिससे यह साबित होता है कि कोशिकाओं को यदि क्षारीय वातावरण में उनके प्रकृति अनुरूप संतुलित आहार देते हुए स्वच्छ वातावरण में रखा जाए तो वे सदा के लिए सशक्त बनी रहतीं हैं। यानि एक क्षारीय शरीर बहुत सालों तक सशक्त और रोगमुक्त रह सकता है। इसलिए व्यक्ति को क्षारीय आहार का सेवन करना चाहिए जिससे उसके शरीर की प्रकृति धीरे-धीरे अम्लीय प्रकृति से क्षारीय प्रकृति में परिवर्तित हो जाए, अर्थात तामसिक से सात्विक प्रकृति में परिवर्तित हो जाए।

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जो यज्ञ वेदों में विदित विधि के अनुसार निःस्वार्थ तरीके से किये जाते हैं, जिनमें समिधा (लकड़ी), घृत (ऐसी गाय का घी जिसके बछड़े को उसकी मां के दूध से वंचित न रखा गया हो), सामग्री आदि घटकों का शुद्ध स्वरुप में प्रयोग किया जाता है, जिनमें गुरु द्वारा दिए गए सिद्ध मंत्र का उच्चारण किया जाता है और जो यज्ञ शुद्ध भाव से किये जाते हैं, वे यज्ञ सात्विक होते हैं। ऐसे यज्ञ में देव पुरुष का प्रकटीकरण होता है, वह धूम्ररहित होता है और शरीर एवं वातावरण के लिए पोषक होता है तथा व्यक्ति के आत्मिक उत्थान मे सहायक होता है। जो यज्ञ केवल दिखावे के लिए या फिर फल की अपेक्षा से किये जाते हैं, वे राजसिक होते हैं। जो यज्ञ वेदानुसार नहीं किये जाते, जिनमें दूषित घटकों का प्रयोग किया जाता है, जिनमें अनुचित मंत्र उच्चारण किया जाता है, जो यज्ञ गुरुविहीन और श्रद्धाहीन होते हैं, वे तामसिक श्रेणि मे आते हैं। ऐसा गीता में कहा गया है, जो यज्ञ निम्न प्राणियों और निम्न लोकों में वास करने वाले भूत, प्रेत और पिशाच आदि क आह्वान करते हैं, ऐसे यज्ञ व्यक्ति को नर्क की ओर ले जाते हैं।

अत: यज्ञों में शुद्ध घटकों का प्रयोग करने से और शरीर को क्षारीय रखने से व्यक्ति को उत्तम आरोग्य की प्राप्ति होती है, जिसके परिणामस्वरूप उसे मृत्यु काल मे पीड़ा का अनुभव नही होता। अपितु वह व्यक्ति अपना शरीर आनंद और संतोष की अनुभूति के साथ स्वेच्छा छोड़कर उच्च लोकों की ओर प्रस्थान करता है।

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अश्विनी गुरुजी 

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