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Shaheed Rajguru Birth Anniversary: राजगुरु से घबरा गई थी ब्रिटिश सरकार, पढ़ें रोचक तथ्य

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 24 Aug, 2022 07:59 AM

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शिवराम हरि राजगुरु उन क्रांतिकारियों में प्रमुख रूप से शामिल हैं, जिनका बलिदान देश को आजाद करवाने में अहम योगदान रखता है। भगत सिंह और सुखदेव के साथ 23 मार्च, 1931 को बलिदान देने

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Shaheed Rajguru Birth Anniversary: शिवराम हरि राजगुरु उन क्रांतिकारियों में प्रमुख रूप से शामिल हैं, जिनका बलिदान देश को आजाद करवाने में अहम योगदान रखता है। भगत सिंह और सुखदेव के साथ 23 मार्च, 1931 को बलिदान देने वाले राजगुरु का जन्म 24 अगस्त, 1908 को महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले के खेड़ा गांव (अब राजगुरु नगर) में पिता हरिनारायण राजगुरु तथा माता पार्वती देवी के घर हुआ। इनकी माता भगवान शिव की अनन्य भक्त थीं। इसी कारण इन्हें भगवान शिव का प्रसाद मान कर नाम शिवराम रखा। राजगुरु 6 वर्ष के ही थे तभी पिता का देहांत हो गया और घर की जिम्मेदारियां बड़े भाई दिनकर पर आ गईं। राजगुरु बचपन से ही निडर, साहसी और नटखट थे। इनमें देशभक्ति जन्म से कूट-कूट कर भरी थी। वह वीर शिवाजी और बाल गंगाधर तिलक से बहुत प्रभावित थे। छोटी उम्र में वह वाराणसी विद्याध्ययन करने एवं संस्कृत सीखने गए। इन्होंने हिन्दू धर्म ग्रंथों तथा वेदों का अध्ययन तो किया ही, लघु सिद्धांत कौमुदी जैसा क्लिष्ट ग्रंथ बहुत कम आयु में कंठस्थ कर लिया। इन्हें कसरत (व्यायाम) का बेहद शौक था और छत्रपति शिवाजी की छापामार युद्ध शैली के बड़े प्रशंसक थे। उच्च शिक्षा ग्रहण करने के लिए वह पुणे के न्यू इंगलिश हाई स्कूल में दाखिल हुए।

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राजगुरु का संपर्क अनेक क्रांतिकारियों से हुआ। वह चंद्रशेखर आजाद से इतने अधिक प्रभावित हुए कि उनकी पार्टी हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी से जुड़ गए। पार्टी में इन्हें रघुनाथ के नाम से जाना जाता था। चंद्रशेखर आजाद के साथ इन्होंने निशानेबाजी की ट्रेनिंग ली और बहुत जल्द कुशल निशानेबाज बन गए। 1925 में काकोरी कांड के बाद क्रांतिकारी संघ लगभग खत्म-सा हो गया, इसलिए नेता पार्टी को दोबारा खड़ा करने के लिए नए-नए नौजवानों को अपने साथ जोड़ रहे थे और इसी समय इनकी मुलाकात मुनिशर अवस्थी से हुई और उनकी सहायता से राजगुरु इस संघ से जुड़ गए।

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लाला लाजपत राय की मौत का बदला
ब्रिटिश सरकार किसी भी तरह से भारतीयों पर अपना राज बरकरार रखना चाहती थी, इसलिए एक नए कमिशन का गठन किया, जिसका नाम साइमन कमिशन था। इसमें सभी सदस्य अंग्रेज थे, जबकि कोई भी भारतीय इसका सदस्य नहीं था। इसी वजह से पूरे देश में इसका विरोध हुआ। 30 अक्तूबर, 1928 को लाहौर में लाला लाजपत राय जी के नेतृत्व में जबरदस्त विरोध प्रदर्शन के दौरान पुलिस अफसर स्कॉट ने भीड़ पर लाठीचार्ज का आदेश दे दिया। इसमें लाला लाजपत राय को गंभीर चोटें आईं और कुछ दिन बाद उनकी मौत हो गई। इससे लोगों में ब्रिटिश सरकार के प्रति रोष बढ़ गया।

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राजगुरु, भगत सिंह और सुखदेव ने उस पुलिस अधिकारी को मारने का प्लान बनाया। तीनों के साथ चंद्रशेखर आजाद योजना के हिसाब से 17 दिसम्बर, 1928 को शाम 7 बजे जयगोपाल चौकी के सामने पहुंच गए। हालांकि, पहचान की गलती से स्कॉट के स्थान पर पुलिस अफसर सांडर्स पर राजगुरु ने गोली चला दी और वह मारा गया। उसकी हत्या से गोरी सरकार की नींद हराम हो गई। क्रांतिकारियों ने उन्हें खुली चुनौती देकर स्थान-स्थान पर पर्चे चिपका दिए, जिनमें लिखा था, ‘सांडर्स को मारकर हमने अपने राष्ट्रीय नेता के अपमान और हत्या का बदला लिया है।’ पुलिस उनकी तलाश में छापेमारी कर रही थी लेकिन तब तक सभी लोग वहां से निकल चुके थे। दुर्गा भाभी (भगवती चरण बोहरा की पत्नी) अपने शिशु को साथ लिए एक मेम के रूप में लाहौर के स्टेशन से साहब के रूप भगत सिंह एवं नौकर राजगुरु के साथ ट्रेन में बैठकर कलकत्ता के लिए रवाना हो गईं। राजगुरु लखनऊ स्टेशन पर उतर गए और नागपुर आ गए। 30 सितम्बर, 1929 को पूना जाते समय एक गुप्तचर द्वारा पुलिस को सूचना देने पर राजगुरु को गिरफ्तार कर लिया गया।

बाद में भगत सिंह और सुखदेव भी पकड़े गए और सभी को जेल भेज दिया गया, लेकिन जेल के हालात बहुत बुरे थे, जिसके विरोध में इन्होंने आमरण अनशन शुरू कर दिया। इस कदम से भारत की जनता इनके साथ आ गई और जेल के बाहर प्रदर्शन होने लगे, जिससे ब्रिटिश अधिकारी घबरा गए और जबरदस्ती इनका अनशन तुड़वाने का प्रयास किया, लेकिन सफल नहीं हो पाए। मजबूर ब्रिटिश अधिकारियों को राजगुरु और उनके साथियों की हर बात माननी पड़ी। पुलिस ने इन तीनों पर लाहौर षड्यंत्र के तहत केस चलाया और 7 अक्तूबर, 1930 को राजगुरु को सांडर्स की हत्या के जुर्म में फांसी की सजा सुना दी। तीनों क्रांतिकारियों को 24 मार्च, 1931 को फांसी होनी थी जिसका पूरे देश में विरोध-प्रदर्शन होने लगा। इससे ब्रिटिश सरकार घबरा गई और समय से एक दिन पहले ही 23 मार्च, 1931 को भगत सिंह व सुखदेव सहित राजगुरु को लाहौर की जेल में फांसी दे दी गई और भारत मां के ये सपूत हमेशा के लिए अमर हो गए।

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