Shangarh: प्राकृतिक सौंदर्य और संस्कृति का अनूठा संगम है हिमाचल प्रदेश का गुलमर्ग

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 09 Apr, 2025 07:35 AM

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Shangarh: हिमाचल प्रदेश के कुल्लू जिले में एक गांव है जिसे प्रकृति ने अनुपम सौंदर्य तो प्रदान किया ही है अपितु लोक संस्कृति की अनूठी परम्परा को जीवंत रखने में भी इसका विशेष महत्व है। कुल्लू जिला की सैंज घाटी में स्थित इस स्थान का नाम है शांघड़।...

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Shangarh: हिमाचल प्रदेश के कुल्लू जिले में एक गांव है जिसे प्रकृति ने अनुपम सौंदर्य तो प्रदान किया ही है अपितु लोक संस्कृति की अनूठी परम्परा को जीवंत रखने में भी इसका विशेष महत्व है। कुल्लू जिला की सैंज घाटी में स्थित इस स्थान का नाम है शांघड़। चारों ओर हरे-भरे पेड़ों से लबरेज पर्वत चोटियां और बीच में एक शांघड़ का मैदान। यहां जो भी व्यक्ति एक बार आता है वह बार-बार यहां आने के लिए लालयित रहता है। यूनेस्को द्वारा हैरीटेज घोषित वृहत हिमालय नैशनल पार्क के पाश्र्व में स्थित इस मैदान को ‘हिमाचल प्रदेश का गुलमर्ग’ भी कहा जा सकता है। समुद्र तट से 2100 मीटर की ऊंचाई पर स्थित इस स्थान को शांघड़ यूं ही नहीं कहा जाता। इसे यह नाम इसलिए मिला है कि यह शान का प्रतीक है। शांघड़ नाले के आर-पार स्थित वरशांघड़, बराली, बनाहड़, मदाना, कटवाली, डगाहरा, पटाहरा गोष्ठी, डडेरा आदि छोटे-छोटे गांव से युक्त यह मैदान इन सबका केंद्रीय स्थान है।

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देवता शंखचूल का मैदान
यह मैदान देवता शंखचूल का है, जिसे स्थानीय बोली में देऊ शांघडू भी कहते हैं। जनश्रुति है कि एक बार देवता शंखचूल हिमालय में भ्रमण करते हुए इस स्थान पर पहुंचे और यहां के सौंदर्य से प्रभावित होकर यहीं पर रहने का निश्चय किया। कालांतर में अपने चमत्कार से क्षेत्र के लोगों द्वारा देवरूप में पूजित हुए। शंखचूल वास्तव में शिवांश है, इसलिए यहां इसे शंखचूल महादेव भी कहा जाता है। यहां ये नाग के रूप में भी दर्शन देते हैं, इसलिए इन्हें नाग देवता के नाम से भी माना जाता है।

जब यह देवता यहां पूजित हुए, उस समय यहां पर राणाओं का शासन था। कालांतर में जब कुल्लू राजा ने इस क्षेत्र को अपने अधीन किया तो पंद्रहवी शताब्दी में राजा बहादुर सिंह ने 285 बीघे का यह मैदान मुआफी के तौर पर देवता शंखचूल को भेंट किया। देवता ने अपनी दैनिक पूजा के लिए निरमंड गांव से ब्राह्मण पुजारी को यहां बसाया था।

शंखचूल देवता ने 285 बीघे में से आधे से अधिक भूमि पुजारियों और पूजा में लोकवाद्य बजाने वाले वादकों को खेती करने के लिए दे दी जबकि 128 बीघा भूमि गायों को चरने के लिए रखा दी। गांव के लोग वर्तमान में भी इसी मैदान में अपने गायों को चरने के लिए ले जाते हैं।

पत्थर का एक टुकड़ा भी नहीं
इस मैदान में पत्थर का एक भी टुकड़ा नहीं है। इस बारे में गांव वालों का मानना है कि महाभारत काल में वनवास के दौरान पांडव यहां आए थे। उन्होंने धान उगाने के लिए यहां की मिट्टी को छाना था। इस मैदान में चारों कोनों पर पत्थर की शिलाएं पांडवों ने ही खड़ी की थी ताकि कोई भी राक्षसी वृत्ति इस मैदान में कदम न रख सके। इस स्थान पर मद्यपान करना, ऊंची आवाज में चिल्लाना तथा रेडियो आदि बजाना वर्जित है।

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एक किंवदंती के अनुसार एक बार बंजार के वन मंडलाधिकारी ने इस मैदान में आकर रेडियो बजाने की कोशिश की परंतु उसका रेडियो बज नहीं सका। वह मैदान से बाहर आया तो रेडियो बजने लगा। वह जैसे ही दोबारा मैदान में रेडियो लेकर आया तो वह स्वत: बंद हो गया। उसे रेडियो के बंद होने पर आश्चर्य हुआ।

तब वह पुजारी के पास गया। पुजारी ने बताया कि इस स्थान पर रेडियो चलाना, गाना बजाना, शोर मचाना, ऊंची आवाज में बोलना और टैंट लगाना देवता को पसंद नहीं है। इस देवता की एक विशेषता यह भी है कि यह शरणागत की रक्षा भी करता है। यदि बाहर से आया हुआ अपराधी इस मैदान में आ जाए तो पुलिस उसको हथकड़ी नहीं लगा सकती। पुलिस इस मैदान में वर्दी पहन कर भी नहीं आ सकती। उन्हें अपराधी को समझा-बुझाकर ही यहां से ले जाना पड़ता है। अपने प्रेमी के साथ घर से भागी लड़की को भी उसकी इच्छा के बिना उसके माता-पिता वापस नहीं ले जा सकते।

इस देवता के सहायक देवताओं में देऊ, शांघड़ी, थान और नाग प्रमुख है। मैदान में एक छोर पर मनु ऋषि का स्थान भी है। पुजारी के अतिरिक्त मनु ऋषि के स्थान पर जाना वर्जित है। कहते हैं जब मनु ऋषि ने हूल ठाकुर को बशुैहर के राजा की कैद से छुड़वाया था तो मनु ऋषि ने कुछ समय इसी स्थान पर आराम किया था।

देवता शंखचूल का एक मोहरा किन्नौर के कामरू से लाया जाता है। देवता शंखचूल का संबंध रामपुर बुशैहर के राजा से भी माना जाता है। रामपुर के राजा का थड़ा अभी भी यहां मौजूद है। जब कभी भी बुशैहर का राजा यहां आता है तब वह इसी थड़े पर बैठता है।
मुख्य त्यौहारों में सायर की संक्रांति का विशेष महत्व है। इस दिन देव पूजा के बाद देवरथ को देव भंडार से बाहर निकाला जाता है। भंडार की परिक्रमा के समय महिलाएं देवता को धूप-दीप अर्पित करके पूजा करती हैं। देवरथ के ऊपर जौ, चावल, अखरोट और चूल की गिरियों को अर्पित करती हैं।

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उसके बाद देवता श्रद्धालु भक्तों की समस्याओं का निवारण करता है। तत्पश्चात देवता की शोभायात्रा ढोल नगाड़ों की धुन के साथ मैदान की तरफ चलती है। देवरथ को मैदान के एक कोने में निर्मित राई नाग के मंदिर की परिक्रमा करके आधे घंटे तक थड़ी पर बैठाया जाता है। उसके बाद देवता उसी धूमधाम से जंगल में नगैड़ी नामक स्थान पर चले जाते हैं और रात में वही गांव में ठहरते हैं। अगले दिन वापस अपने मंदिर में लौटते हैं। संक्रांति के अतिरिक्त फागुन और आषाढ़ में शाढनु मेला धूमधाम से मनाया जाता है। इस तरह कहा जा सकता है कि शांघड़ जितना खूबसूरत है यहां की देव परम्पराएं भी उतनी ही आलौकिक, प्राचीन और शक्तिशाली है।

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