Edited By Niyati Bhandari,Updated: 23 Sep, 2019 07:37 AM
भगवान शिव के विवाह का प्रसंग है। पार्वती की माता मैना के भीतर अहंकार था। भगवान शिव इस अहंकार को नष्ट करना चाहते हैं इसलिए उन्होंने भगवान विष्णु और ब्रह्माजी से कहा- आप दोनों मेरी आज्ञा से
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भगवान शिव के विवाह का प्रसंग है। पार्वती की माता मैना के भीतर अहंकार था। भगवान शिव इस अहंकार को नष्ट करना चाहते हैं इसलिए उन्होंने भगवान विष्णु और ब्रह्माजी से कहा- आप दोनों मेरी आज्ञा से अलग-अलग गिरिराज के द्वार पर पहुंचिए। शिवजी की आज्ञा मानकर भगवान विष्णु सबसे पहले हिमवान के द्वार पर पधारे। मैना (पार्वतीजी की माता) ने शुभ आरती सजाई और उनके साथ की स्त्रियां उत्तम मंगलगीत गाने लगीं। सुंदर हाथों में सोने की थाल शोभित है, इस प्रकार मैना हर्ष के साथ शिवजी का परछन करने चलीं। जब मैना ने विष्णु के अलौकिक रूप को देखा तो प्रसन्न होकर नारद जी से पूछा है- क्या ये ही मेरी शिवा के शिव हैं?
तब नारद जी बोले, ‘‘नहीं, ये तो भगवान श्री हरि हैं। पार्वती के पति तो और भी अलौकिक हैं। उनकी शोभा का वर्णन नहीं हो सकता।’’
इस प्रकार एक-एक देवता आ रहे हैं, मैना उनका परिचय पूछती हैं और नारद जी उनको शिव का सेवक बताते हैं। फिर उसी समय भगवान शिव अपने शिवगणों के साथ पधारे हैं। सभी विचित्र वेश-भूषा धारण किए हुए हैं। कुछ के मुख ही नहीं हैं और कुछ के मुख ही मुख हैं। उनके बीच में भगवान शिव अपने नाग के साथ पधारे हैं। शिवजी से द्वार पर शगुन मांगा गया है। बाबा ने पूछा कि शगुन क्या होता है?
किसी ने कहा कि आप अपनी कोई प्रिय वस्तु दान में दीजिए। बाबा ने अपने गले से सर्प उतारा और उस स्त्री के हाथ में रख दिया जो शगुन मांग रही थी। वहीं मूर्छित हो गई। इसके बाद जब महादेवजी को भयानक भेस में देखा तब तो स्त्रियों के मन में भारी भय उत्पन्न हो गया। डर के मारे भागकर वे घर में घुस गईं और शिवजी जहां जनवासा था, वहां चले गए। कुछ डर के मारे कन्या पक्ष (मैना जी) वाले मूर्छित हो गए। जब मैना जी को होश आया तो रोते हुए कहा- चाहे कुछ भी हो जाए मैं इस भेस में अपनी बेटी का विवाह शिव से नहीं कर सकती हूं।
उन्होंने पार्वती से कहा- मैं तुम्हें लेकर पहाड़ से गिर पड़ूंगी, आग में जल जाऊंगी या समुद्र में कूद पड़ूगी। चाहे घर उजड़ जाए और संसार भर में अपकीर्ति फैल जाए, पर जीते जी मैं इससे तुम्हारा विवाह नहीं करूंगी।
नारद जी को भी बहुत सुनाया। मैंने नारद का क्या बिगाड़ा था जिन्होंने पार्वती को ऐसा उपदेश दिया कि उसने बावले वर के लिए तप किया। सचमुच उनको न किसी का मोह है, न माया, न उनके धन है, न घर है। यह सब सुनकर पार्वती अपनी मां से बोली- हे माता! कलंक मत लो, रोना छोड़ो, यह अवसर विषाद करने का नहीं है। मेरे भाग्य में जो दुख-सुख लिखा है, उसे मैं जहां जाऊंगी, वहीं पाऊंगी।
ऐसा कह कर पार्वती शिव के पास गई और उन्होंने निवेदन किया हे भोले नाथ! मुझे सभी रूप और सभी वेश में स्वीकार हो। लेकिन प्रत्येक माता-पिता की इच्छा होती है कि उनका दामाद सुंदर हो।
तभी वहां विष्णु जी आ जाते हैं और कहते हैं पार्वती जी! आप चिंता मत कीजिए। आज जो शिव का रूप बनेगा उसे देखकर सभी दंग रह जाएंगे। आप यह जिम्मेदारी मुझ पर छोड़िए। भगवान विष्णु ने भगवान शिव का सुंदर शृंगार किया और सुंदर वस्त्र पहनाए। करोड़ों कामदेव को लज्जित करने वाला रूप बनाया शिव का। शिव के इस रूप को भगवान विष्णु ने चंद्रशेखर नाम दिया। इस समाचार को सुनते ही हिमालय उसी समय नारदजी और सप्त ऋषियों को साथ लेकर अपने घर गए।
तब नारदजी ने पूर्वजन्म की कथा सुनाकर सबको समझाया और कहा कि हे मैना तुम्हारी यह लड़की साक्षात जगजननी भवानी है। पहले यह दक्ष के घर जाकर जन्मी थी, तब इनका सती नाम था, बहुत सुंदर शरीर पाया था। वहां भी सती शंकरजी से ही ब्याही गई थी।
यहां पर्वतराज हिमालय ने हाथ में कुश लेकर तथा कन्या का हाथ पकड़कर उन्हें भवानी (शिवपत्नी) जानकर शिवजी को समर्पण किया। जब महेश्वर (शिवजी) ने पार्वती का पाणिग्रहण किया तब (इंद्रादि) सब देवता हृदय में बड़े ही हर्षित हुए। श्रेष्ठ मुनिगण वेदमंत्रों का उच्चारण करने लगे और देवगण शिवजी की जय-जयकर करने लगे। कई प्रकार के बाजे बजने लगे। आकाश से नाना प्रकार के फूलों की वर्षा हुई। शिव-पार्वती का विवाह हो गया। सारे ब्रह्मांड में आनंद भर गया।
बहुत प्रकार का दहेज देकर, फिर हाथ जोड़कर हिमालय ने कहा- हे शंकर! आप पूर्णकाम हैं, मैं आपको क्या दे सकता हूं? (इतना कहकर) वे शिवजी के चरणकमल पकड़ कर रह गए। तब कृपा के सागर शिवजी ने अपने ससुर का सभी प्रकार से समाधान किया। फिर प्रेम से परिपूर्ण हृदय मैनाजी ने शिवजी के चरण कमल पकड़े और कहा-हे नाथ! यह उमा मुझे मेरे प्राणों के समान (प्यारी) है। आप इसे अपने घर की टहलनी बनाइएगा और इसके सब अपराधों को क्षमा करते रहिएगा। अब प्रसन्न होकर मुझे यही वर दीजिए।
शिवजी ने बहुत तरह से अपनी सास को समझाया। फिर माता ने पार्वती को बुला लिया और गोद में बिठाकर यह सुंदर सीख दी-हे पार्वती! तू सदाशिवजी के चरणों की पूजा करना, नारियों का यही धर्म है। उनके लिए पति ही देवता है और कोई देवता नहीं है। इस प्रकार की बातें कहते-कहते उनकी आंखों में आंसू भर आए और उन्होंने कन्या को छाती से चिपटा लिया।
पार्वतीजी माता से फिर मिलकर चली, सब किसी ने उन्हें योग्य आशीर्वाद दिए। हिमवान अत्यंत प्रेम से शिवजी को पहुंचाने के लिए साथ चले। वृषकेतु (शिवजी) ने बहुत तरह से उन्हें संतोष कराकर विदा किया। पर्वतराज हिमालय तुरंत घर आए और उन्होंने सब पर्वतों और सरोवरों को बुलाया। हिमवान ने आदर, दान, विनय और बहुत सम्मानपूर्वक सबकी विदाई की।
जब शिवजी कैलाश पर्वत पर पहुंचे, तब सब देवता अपने-अपने लोकों को चले गए और शिव-पार्वती अपने गणों सहित कैलाश पर रहने लगे।