Edited By Niyati Bhandari,Updated: 06 Jul, 2024 09:01 AM
देश के पूर्वी छोर पर बंगाल की खाड़ी के किनारे बसा पुरी आस्था और पर्यटन का संगम है, जो ओडिशा की राजधानी भुवनेश्वर से 60 कि.मी. की दूरी पर स्थित है। पु
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Shree Jagannath Temple Puri: देश के पूर्वी छोर पर बंगाल की खाड़ी के किनारे बसा पुरी आस्था और पर्यटन का संगम है, जो ओडिशा की राजधानी भुवनेश्वर से 60 कि.मी. की दूरी पर स्थित है। पुरी को देश के चार धामों में से एक माना जाता है। स्थानीय मान्यता है कि कई वर्ष पूर्व नीलांचल पर्वत पर स्वयं भगवान नीलमाधव (जगन्नाथ) निवास करते थे। एक दिन राजा इंद्रद्युम्न को रात में भगवान विष्णु ने उनको सपने में दर्शन देकर कहा कि नीलांचल पर्वत की एक गुफा के अंदर मेरी एक प्रतिमा है, जिसे नीलमाधव कहते हैं।
प्रभु बोले, ‘‘तुम एक मंदिर बनवाओ और उसमें मेरी यह मूर्ति स्थापित कर दो।’’
Jagannath temple story: नीलांचल पर्वत पर सबर कबीला था, जिसका मुखिया विश्ववसु भगवान नीलमाधव का उपासक था और उसने मूर्ति को गुफा में छुपा कर रखा था। वह गुफा में उसकी पूजा करता था। राजा इंद्रद्युम्न ने अपने सेवक ब्राह्मण विद्यापति को मूर्ति लाने का कार्य सौंपा।
विद्यापति ने मुखिया विश्ववसु की पुत्री से विवाह कर लिया। कुछ दिनों के बाद विद्यापति ने अपने ससुर विश्ववसु से भगवान नील माधव के दर्शन करने की इच्छा व्यक्त की। पहले तो विश्ववसु ने मना कर दिया परंतु बाद में बेटी की जिद के कारण हां कर दी। विश्ववसु, विद्यापति की आंख पर पट्टी बांध कर भगवान नील माधव के दर्शन कराने ले गया।
विद्यापति चतुराई करके जाते समय रास्ते में सरसों के दाने गिराता गया और बाद में सरसों के दानों के जरिए गुफा से मूर्ति चुराकर राजा को दे दी। विश्ववसु भगवान नीलमाधव की मूर्ति चोरी होने से बहुत दुखी हुआ। अपने भक्त के दुख को देखकर भगवान भी दुखी हो गए और उसी गुफा में वापस लौट गए।
जाते समय उन्होंने राजा इंद्रद्युम्न से वादा किया कि वह उनका एक विशाल मंदिर बनवा देगा तो वे उनके पास जरूर लौट आएंगे। राजा इंद्रद्युम्न ने एक विशाल मंदिर का निर्माण करवाया और भगवान विष्णु से मंदिर में विराजमान होने के लिए प्रार्थना की। भगवान ने कहा कि द्वारका से बड़ा टुकड़ा समुद्र में तैरकर पुरी तक आ गया है, उससे तुम मेरी मूर्ति बनवाओ।
राजा के सेवकों ने टुकड़े को तो ढूंढ लिया पर वे सब मिल कर उसे उठा नहीं पाए। तब राजा ने सबर कबीले के मुखिया नीलमाधव के अनन्य भक्त विश्ववसु को उस भारी टुकड़े को लाने के लिए प्रार्थना की। सबको बहुत आश्चर्य हुआ जब विश्ववसु भारी-भरकम लकड़ी को उठाकर मंदिर तक ले आए।
राजा इंद्रद्युम्न में उस लकड़ी के टुकड़े की प्रतिमा बनाने के लिए कई कुशल कारीगर लगाए, पर उन कारीगरों में से कोई भी लकड़ी में एक छैनी तक भी नहीं लगा सका। तब सृजन के देवता भगवान विश्वकर्मा एक बुजुर्ग व्यक्ति का रूप धरकर आए।
उन्होंने राजा से भगवान नीलमाधव की मूर्ति बनाने की इच्छा व्यक्त की और अपनी शर्त भी रखी कि वे 21 दिन में मूर्ति को एकांत में बनाएंगे, उन्हें कोई मूर्ति बनाते हुए नहीं देख सकता। राजा ने उनकी शर्त सहर्ष स्वीकार कर ली।
अब लोगों को कमरे के अंदर से आरी, छैनी, हथौड़ी की आवाजें सुनाई दे रही थीं। इसी बीच रानी गुंडिचा, जो राजा इंद्रद्युम्न की रानी थी, दरवाजे के पास गई पर उसे कोई आवाज सुनाई नहीं दी। उसे लगा कि वह बूढ़ा कारीगर मर गया है। उसने घबरा कर राजा को इसकी सूचना भिजवाई कि अंदर से किसी प्रकार की कोई आवाज सुनाई नहीं दे रही।
राजा इंद्रद्युम्न भी चिंतित हो गए। उन्होंने शर्त की अनदेखी करते हुए कमरे का दरवाजा खोलने का आदेश दिया। जैसे ही कमरा खोला गया तो बूढ़ा व्यक्ति कहीं दिखाई नहीं दिया और कमरे में 3 अधूरी मूर्तियां प्राप्त हुईं। भगवान नीलमाधव (जगन्नाथ) और उनके भाई के छोटे-छोटे हाथ बने थे, लेकिन उनकी टांगें नहीं बनी थी और सुभद्रा जी के तो हाथ-पांव ही नहीं बने थे।
भगवान जगन्नाथ ने उन्हें स्वप्न में दर्शन देकर कहा कि वे अब से काष्ठ की मूर्ति में ही प्रकट होकर भक्तों को दर्शन दिया करेंगे।
राजा इंद्रद्युम्न ने इसे भगवान जगन्नाथ की इच्छा मानकर इन अपूर्व प्रतिमाओं को मंदिर में स्थापित कर दिया। इस प्रकार तब से भगवान जगन्नाथ और उनके भाई-बहन इसी रूप में भक्तों को दर्शन दे रहे हैं।