Edited By Niyati Bhandari,Updated: 24 Jun, 2024 07:52 AM
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जगन्नाथ जी की रथ यात्रा के बाहरी व आन्तरिक कारण अलग-अलग हैं। श्रीजगन्नाथ जी की रथ यात्रा के बाहरी कारण के बारे में ब्रह्माण्ड पुराण में कहा गया है कि-
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Shri jagannath rath yatra 2024: जगन्नाथ जी की रथ यात्रा के बाहरी व आन्तरिक कारण अलग-अलग हैं। श्रीजगन्नाथ जी की रथ यात्रा के बाहरी कारण के बारे में ब्रह्माण्ड पुराण में कहा गया है कि-
'रथे चागमनं दृष्ट्वा पुनर्जन्म न विद्यते'
अर्थात: रथ के ऊपर भगवान जगन्नाथ जी का दर्शन करके मनुष्य पुनर्जन्म से बच जाता है। वैसे भी भगवान जगन्नाथ तो किसी व्यक्ति विशेष या जाति विशेष के नहीं हैं, वे तो जगत के नाथ हैं। अतः जगतवासियों के कल्याण के लिए, जगतवासियों को दर्शन देने के लिये व उन्हें जन्म-मृत्यु रूपी महान दुःख से छुटकारा दिलाने के लिए, वे रथ में बैठकर नगर भ्रमण के लिए निकलते हैं। इसके अलावा प्रभास खण्ड ग्रन्थ व पुराणों में श्रीजगन्नाथ जी की रथ यात्रा के बारे में कहा गया है कि वर्षों बाद कुरुक्षेत्र में जब ब्रजवासियों की भगवान श्रीकृष्ण से भेंट हुई तो वे भगवान को वृन्दावन ले जाने की ज़िद करने लगे।
यहां तक कि सभी गोपियों ने श्रीकृष्ण के रथ को घेर लिया और उसे खींचकर वृन्दावन की ओर ले जाने लगी। पुराणों के आधार पर रथ यात्रा भगवान गोपीनाथ जी (श्रीकृष्ण) की मधुर रस वाली एक विशिष्ट लीला है। प्रत्येक वर्ष, आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीय तिथि को श्रीजगन्नाथ पुरी (उड़ीसा) में विशाल रथ यात्रा का आयोजन होता है जिसमें हज़ारों नहीं, बल्कि लाखों लोग भाग लेते हैं।
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चमकदार दर्पणों, चामरों, छत्रों, झण्डों व रेशमी वस्त्रों से सजे लगभग 50-50 फुट ऊंचे जगन्नाथ जी, बलदेव जी, व सुभद्रा जी के रथ अपने आप में अद्भुत व दिव्य होते हैं। आज गौड़ीय मठ, अन्तरार्ष्ट्रीय कृष्ण भावनामृत संघ (इस्कान) व उत्कल सांस्कृतिक संघ आदि आध्यात्मिक संस्थाओं के द्वारा श्रीजगन्नाथ पुरी में ही नहीं अपितु पूरे विश्व के (लन्दन, पैरिस, लास एंजिल्स, सिडनी, वंकूवर, मुम्बई, कोलकाता, अगरतला, दिल्ली, चण्डीगढ़, आदि) कई बड़े शहरों में बिना किसी भेद-भाव के रथ यात्रा महोत्सव प्रतिवर्ष बड़ी धूम-धाम व हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है, जिसमें लाखों लोग भगवान की कृपा से आनन्द प्राप्त करते हैं।
श्री चैतन्य गौड़िया मठ की ओर से
श्री भक्ति विचार विष्णु जी महाराज
bhakti.vichar.vishnu@gmail.com.
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