Edited By Niyati Bhandari,Updated: 30 Jan, 2022 01:55 PM

‘जीवन लक्ष्य’ की प्राप्तियस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन।
शास्त्रों की बात, जानें धर्म के साथ
‘जीवन लक्ष्य’ की प्राप्तियस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन।
कर्मेन्द्रियै: कर्मयोगमसक्त: स विशिष्यते।।
श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप व्याख्याकार : स्वामी प्रभुपाद
साक्षात स्पष्ट ज्ञान का उदाहरण भगवद्गीता
अनुवाद एवं तात्पर्य : यदि कोई निष्ठावान व्यक्ति अपने मन के द्वारा कर्मेन्द्रियों को वश में करने का प्रयत्न करता है और बिना किसी आसक्ति के कर्मयोग (कृष्णभावनामृत) प्रारंभ करता है, तो वह अति उत्कृष्ट है। लम्पट जीवन और इंद्रिय सुख के लिए छद्य योगी का मिथ्या वेष धारण करने की अपेक्षा अपने कर्म में लगे रह कर जीवन लक्ष्य को, जो भवबंधन से मुक्त होकर भगवद् धाम को जाना है, प्राप्त करने के लिए कर्म करते रहना अधिक श्रेयस्कर है।

प्रमुख स्वार्थ- गति तो विष्णु के पास जाना है। सम्पूर्ण वर्णाश्रम-धर्म का उद्देश्य इसी जीवन लक्ष्य की प्राप्ति है। एक गृहस्थ भी कृष्णभावनामृत में नियमित सेवा करके इस लक्ष्य तक पहुंच सकता है। आत्म साक्षात्कार के लिए मनुष्य शास्त्रानुमोदित संयमित जीवन बिता सकता है और अनासक्त भाव से अपना कार्य करता रह सकता है। इस प्रकार वह प्रगति कर सकता है।
जो निष्ठावान व्यक्ति इस विधि का पालन करता है वह उस पाखंडी (धूर्त) से कहीं श्रेष्ठ है जो अबोध जनता को ठगने के लिए दिखावटी आध्यात्मिकता का जामा धारण करता है। जीविका के लिए ध्यान धरने वाले प्रवचक ध्यानी की अपेक्षा सड़क पर झाड़ू लगाने वाला निष्ठावान व्यक्ति कहीं अच्छा है।
