Edited By Niyati Bhandari,Updated: 09 Sep, 2023 08:25 AM
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एक संत अपना आश्रम बनाना चाहते थे। इसके लिए वह लोगों से मुलाकात करते थे। उन्हें यात्रा के लिए एक से दूसरी जगह जाना पड़ता था। इसी दौरान उनकी मुलाकात
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Inspirational Context: एक संत अपना आश्रम बनाना चाहते थे। इसके लिए वह लोगों से मुलाकात करते थे। उन्हें यात्रा के लिए एक से दूसरी जगह जाना पड़ता था। इसी दौरान उनकी मुलाकात एक विदुषी कन्या से हुई। विदुषी ने संत से उसकी कुटिया में रुक कर विश्राम करने की याचना की। संत ने आग्रह स्वीकार कर लिया। विदुषी ने संत को भोजन कराया और विश्राम के लिए चारपाई पर दरी बिछा दी तथा खुद जमीन पर टाट बिछाकर सो गई। विदुषी को सोते ही नींद आ गई। उधर, संत को चारपाई पर नींद नहीं आ रही थी। उन्हें मुलायम गद्दे पर सोने की आदत थी, जो उन्हें दान में मिला था। वह रात भर चैन की नींद सो न सके और विदुषी के बारे में ही सोचते रहे।
दूसरे दिन सवेरा होते ही संत ने विदुषी से पूछा कि तुम कैसे इस कठोर जमीन पर चैन से सो रही थी।
विदुषी ने उत्तर दिया, “हे गुरुदेव ! जब दिन भर के कार्यों के बाद मैं इस धरा पर सोती हूं तो मुझे मां की गोद का आत्मीय अहसास होता है। मैं दिन भर के अपने सत्कर्मों का विचार करते हुए चैन की नींद सो जाती हूं। मुझे एहसास भी नहीं होता कि मैं इस कठोर धरा पर हूं।”
यह सुनकर संत जाने लगे। तब विदुषी ने पूछा, “हे गुरुवर ! क्या मैं भी आपके साथ आश्रम के लिए धन एकत्र करने चल सकती हूं?
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तब संत ने विनम्रतापूर्वक उत्तर दिया, “बेटी ! तुमने जो मुझे आज ज्ञान दिया है उससे मुझे पता चला कि मन का सच्चा सुख कहां है। अब मुझे किसी आश्रम की इच्छा नहीं रह गई। यह कहकर संत वापस अपने गांव लौट गए। उन्होंने एकत्र किया धन गरीबों में बांट दिया तथा वह स्वयं एक कुटिया बनाकर रहने लगे।
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प्रसंग का सार यह है कि जिसके मन में संतोष एवं सब्र नहीं है वह लाखों-करोड़ों की दौलत होते हुए भी खुश नहीं रह सकता। इसके विपरीत जो अपने पास जितना है उसी में संतुष्ट है, वह कम संसाधनों में भी खुशी से रह सकता है।