Edited By Niyati Bhandari,Updated: 12 Jul, 2024 07:18 AM
‘जैसा बोओगे वैसा पाओगे’, इस मशहूर लोक कहावत के आधार पर बचपन से ही हमें माता-पिता एवं शिक्षकों द्वारा यह सीख दी जाती है कि अपना चरित्र एवं चाल-चलन ऐसा रखो कि आप सभी के सम्मान एवं प्यार के पात्र बन सको। इसीलिए जब कोई
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Smile please: ‘जैसा बोओगे वैसा पाओगे’, इस मशहूर लोक कहावत के आधार पर बचपन से ही हमें माता-पिता एवं शिक्षकों द्वारा यह सीख दी जाती है कि अपना चरित्र एवं चाल-चलन ऐसा रखो कि आप सभी के सम्मान एवं प्यार के पात्र बन सको। इसीलिए जब कोई बच्चा शरारत करता है तो अमूमन लोगों से यही टिप्पणी सुनने को मिलती है कि ‘इसके मां-बाप ने इसको शिष्टाचार नहीं सिखाया होगा, तभी यह ऐसा कर रहा है’।
इससे इतना तो अवश्य सिद्ध होता है कि हमारे आचरण या व्यवहार से हमारे संस्कारों का दर्शन होता है, इसलिए यदि हम यह अपेक्षा रखते हैं कि हमारे साथ हमेशा सभी अच्छाई से पेश आएं, तो उसके लिए हमें भी सभी के साथ अच्छाई से पेश आने का संस्कार धारण करना होगा क्योंकि यह तो दुनिया का दस्तूर ही है कि ‘जैसा दोगे-वैसा पाओगे’।
कई लोग अक्सर दूसरों के मन में अपनी छवि बनाने के ख्याल से सतही स्तर पर ही अच्छा बनने का ढोंग करते हैं और अपनी इस चतुराई या जालसाजी में कुछ हद तक कामयाब भी हो जाते हैं, किन्तु ऐसा करने में वे ‘जैसा बोओगे वैसा पाओगे’ वाली कहावत को भूल जाते हैं और अपने भ्रम में अंदर ही अंदर खुश होते रहते हैं।
उन्हें इस बात का जरा भी इल्म नहीं होता कि कर्म का सार्वभौमिक कानून सबसे सूक्ष्म स्तर पर संचालित होता है, अत: आज नहीं तो कल, उन्हें अपनी जालसाजी का फल उसी रूप में वापस मिलेगा ही। इसलिए समझदारी इसी में है कि हम वास्तविक रूप से सभी के प्रति अपने भीतर अच्छी भावनाएं रखें, क्योंकि जब हमारी भावनाएं शुद्ध होंगी, तब लोगों का व्यवहार भी अपने आप हमारे साथ अच्छा होगा।
याद रखें ! झूठे भ्रम का मुखौटा आज नहीं तो कल सत्यता और शुद्धता के सामने फीका पड़ ही जाएगा इसीलिए आप जो हो, जैसे भी हो, अंदर-बाहर समान ही रहें, ताकि लोगों के मन में किसी भी प्रकार की विभ्रांति पैदा न हो। सामान्यत: हमारे अंदर अपने करीबी एवं मित्रगणों के प्रति प्यार एवं शुद्ध भावना रखने की स्वाभाविक वृत्ति होती है, परन्तु उन लोगों का क्या, जो हमारे परिवार और दोस्तों के इस वृत्त के बाहर हैं?
बहुधा उन लोगों के प्रति हमारी भावनाएं व व्यवहार हमें उनसे हुए अनुभव के आधार पर बदलते रहते हैं। हालांकि, नैतिक रूप से यह गलत है, किन्तु हमारी अपनी व्यक्तिगत धारणा के वशीभूत हम यह दोहरा मापदंड अपने अंदर बना लेते हैं, जो हमें एक ही प्रकार की गलती करने वाले दो लोगों के प्रति अलग-अलग प्रतिक्रिया देने को मजबूर कर देता है।
मसलन, हमारा अपना बच्चा यदि हमारे ऊपर कीचड़ उछाले तो उसको हम बाल लीला कहकर टाल देंगे, परंतु यदि पड़ोसी के बच्चे ने हम पर जरा-सी मिट्टी भी फैंक दी तो उसे हम शरारत या बदतमीजी कहकर हंगामा खड़ा कर देंगे। ऐसे हम एक ही गलती के लिए किसी एक के प्रति सहानुभूति और दूसरे के प्रति क्रोध व घृणा दिखाते हैं।
जरा सोचिए, यदि हम एक छोटे से सकारात्मक प्रयास के साथ, गलती करने वाले व्यक्ति के प्रति भी सहानुभूति दिखाकर उसे माफ कर दें तो क्या उससे हमारी शान में कोई कमी आ जाएगी? नहीं न? तो क्यों हम अपना स्वभाव उतना सहज नहीं बना पाते?
इसका सबसे सरल तरीका है पाप और पापी के बीच के अंतर को समझना, परंतु अमूमन हम दयालु बनने की बजाय तुरंत ही किसी व्यक्ति द्वारा की गई गलती के आधार पर उसकी निंदा करनी शुरू कर देते हैं और मन ही मन उसे नफरत की भावना से देखने लगते हैं।
क्या ऐसा करने से उस व्यक्ति में सुधार आ जाएगा या हमें शांति मिलेगी ? नहीं ! इसलिए ऐसे समय पर उचित तरीका है कि हम अपने मन में यह सोचें की वह बेचारा अपने स्वभाव-संस्कार से मजबूर और लाचार होकर यह गलती कर रहा है तो क्यों न हम अपने सहयोग का हाथ उसकी ओर बढ़ाकर उसे इस दोष से उबरने में मददगार बनें।
जरा सोचिए, विश्व के हर मनुष्य के भीतर दया की इस प्रकृति का निर्माण हो जाए तो कितना अच्छा होगा? फिर कहीं भी कोई लड़ाई आदि नहीं होगी और न कोई हिंसाचार। तो चलिए, आज से हम सभी दयालुता के संस्कार को धारण कर सभी के प्रति शुद्ध और शुभ भावना रखें, जिससे कमजोर आत्माओं को अपनी कमजोरियों पर काबू पाकर अपने जीवन को बदलने का सुअवसर प्राप्त हो।