Varaha Jayanti: ब्रह्मा जी की नाक से हुआ था श्री वराह का जन्म, पढ़ें कथा

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 06 Sep, 2024 06:37 AM

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6 सितंबर को श्री वराह अवतार जयंती है। शास्त्र एवं पुराण साक्षी हैं कि भगवान सदा ही अपने भक्तों की रक्षा करते हैं इसीलिए पृथ्वी का उद्धार करने के लिए भगवान विष्णु ने वराह अवतार लिया। भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को वराह रूप में उन्होंने पृथ्वी...

 
Varaha Jayanti 2024:  6 सितंबर को श्री वराह अवतार जयंती है। शास्त्र एवं पुराण साक्षी हैं कि भगवान सदा ही अपने भक्तों की रक्षा करते हैं इसीलिए पृथ्वी का उद्धार करने के लिए भगवान विष्णु ने वराह अवतार लिया। भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को वराह रूप में उन्होंने पृथ्वी को हिरण्याक्ष से मुक्त करवाया था इसलिए यह दिन भगवान की वराह जयंती के रूप में मनाया जाता है।
 
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ब्रह्मा जी ने जब सृष्टि की रचना की तो  उसका विस्तार करने के लिए मनु और शतरूपा नामक पति-पत्नी बनाए तथा उन्होंने पुत्र स्वायम्भुव मनु को अपनी पत्नी के साथ मिलकर गुणवती संतान उत्पन्न करके धर्मपूर्वक पृथ्वी का पालन करने का आदेश दे दिया। मनु जी ने तब हाथ जोड़कर पिता की आज्ञा का पालन करना स्वीकार किया तथा प्रार्थना की कि पृथ्वी के बिना वह अपनी भावी प्रजा का पालन कैसे कर सकेंगे क्योंकि सारी पृथ्वी जल में डूबी हुई है।
 
ब्रह्मा जी तब पुत्र स्वायम्भुव मनु की बात सुनकर एक गहरी सोच में पड़ गए क्योंकि वह जानते थे कि जब वह लोक रचना में व्यस्त थे तो पृथ्वी जल में डूब गई थी तो अब वह रसातल तक चली गई है। पृथ्वी को रसातल से लाने के विचार में लीन श्री ब्रह्मा जी ने सर्वशक्तिमान श्री हरि जी का स्मरण किया ही था, तभी उन्हें छींक आई तथा उनके नासाछिद्र से अचानक अंगूठे के आकार का एक वराहशिशु निकला तथा आकाश में खड़ा हो गया।
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ब्रह्मा जी के देखते ही देखते वह बढऩे लगा तथा क्षण भर में वह हाथी के बराबर आकार का हो गया। उस वराह मूर्त को देखकर मरीचि आदि मुनिजन, सनकादि और स्वायम्भुव मनु सहित ब्रह्मा जी भी विचार करने लगे कि नाक से निकला अंगूठे के पोरुए के बराबर दिखने वाला यह प्राणी कैसे एकदम से बड़ी भारी शिला के समान हो गया है, निश्चय ही यह यज्ञमूर्त भगवान हैं जो सभी के मन को मोहित कर रहे हैं।

सभी इस बारे में विचार कर ही रहे थे कि भगवान यज्ञपुरुष पर्वताकार होकर गरजने लगे। उनकी गर्जना से सभी दिशाएं प्रतिध्वनित हो उठीं तथा ब्रह्मा जी और श्रेष्ठ ब्राह्मण हर्षित हो गए। माया-मय वराह भगवान की घुरघुराहट एवं गडग़ड़ाहट को सुनकर जनलोक, तपलोक और सत्यलोक निवासी एवं मुनिगण तीनों वेदों के मंत्रों से भगवान की स्तुति करने लगे। उस वराह ने एकबार फिर से गजराज की सी लीला करते हुए जल में प्रवेश किया। वह जल में डूबी हुई पृथ्वी को अपनी दाढ़ों पर लेकर रसातल से ऊपर आ गए।

सबकी रक्षा करने वाले भगवान विष्णु ने वराह अवतार लेकर जल से पृथ्वी को बाहर निकाला और अपने खुरों से जल को स्तम्भित करके उस पर पृथ्वी को स्थापित भी किया। तब सभी देवताओं ने भगवान की अनेकों रूपों से स्तुति की।

भगवान वराह का स्वरूप
भगवान विष्णु ने ही संसार के विस्तार के लिए वराह रूप में अवतार लिया। उनका शरीर नीले रंग का था, जितना बड़ा था उतना ही कठोर भी था। उनका वज्रमय पर्वत के समान कलेवर था तथा शरीर पर कड़े बाल थे, बाण के समान पैने खुर थे, दंत सफेद और कठोर थे, और नेत्रों से तेज निकल रहा था तथा वह बड़ी तेज गर्जना कर रहे थे। सुकर रूप धारण करने के कारण वह अपनी नाक से सूंघते हुए पृथ्वी की खोज कर रहे थे।
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कौन ले गया था पृथ्वी को जल में
शास्त्रों के अनुसार भगवान के वैकुंठधाम में जय और विजय नामक दो द्वारपाल थे। जो वहां भगवान लक्ष्मी नारायण जी की सेवा करते थे। एक बार सनकादि मुनिश्वर जब वैकुंठधाम में भगवान लक्ष्मी जी और विष्णु जी से मिलने के लिए गए तो जय और विजय के आसुरी स्वभाव को देखते हुए उन्होंने उनके साथ उचित व्यवहार नहीं किया, जिस कारण चारों सनकादिक भाइयों ने उन्हें पृथ्वी पर जाकर असुर बनने का श्राप दे दिया।
 
उसी के प्रभाव से दिति के गर्भ से जय और विजय ने जन्म लिया उनका नाम प्रजापति कश्यप ने हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष रखा। दोनों भाइयों ने कठिन तपस्या करके ब्रह्म जी से अलग-अलग वरदान पाए। हिरण्यकश्यप ने अनेक शर्तें रखकर ब्रह्मा जी से न मरने का वरदान प्राप्त किया।

उसे मारने के लिए भगवान ने नृसिंह अवतार लिया तथा उसे उसके दिए हुए वचन के अनुसार ही मारा। दूसरे भाई हिरण्याक्ष को मारने के लिए भगवान ने वराह अवतार लिया। हिरण्याक्ष ने जब दिग्विजय की तो उसने सारी पृथ्वी को जीत लिया, वह पृथ्वी को उठाकर समुद्र में ले गया था। पृथ्वी को दैत्य से मुक्ति दिलवाने के लिए भगवान ने वराह अवतार लिया।  
 
 
 
 

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