Srimad Bhagavad Gita: ‘श्रीमद्भगवद् गीता के अध्यायों का नामकरण रहस्य तथा सार’ - 12

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 23 Dec, 2021 09:23 AM

srimad bhagavad gita

पुण्यशील अर्जुन को भगवान के निराकार और साकार दोनों स्वरूपों का मर्म ज्ञात हो गया कि भगवान निराकार होते हुए भी प्रकृति अर्थात योग माया को अपने अधीन करके साकार रूप में प्रकट होते हैं, तब अर्जुन के मन में यह जिज्ञासा उत्पन्न हुई तो वह

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Srimad Bhagavad Gita: पुण्यशील अर्जुन को भगवान के निराकार और साकार दोनों स्वरूपों का मर्म ज्ञात हो गया कि भगवान निराकार होते हुए भी प्रकृति अर्थात योग माया को अपने अधीन करके साकार रूप में प्रकट होते हैं, तब अर्जुन के मन में यह जिज्ञासा उत्पन्न हुई तो वह भगवान से पूछने लगे कि जो अनन्य प्रेमी भक्तजन आपके भजन ध्यान में लगे रह कर आप सगुण रूप परमेश्वर की अराधना करते हैं और जो अविनाशी निराकार ब्रह्मा को अतिश्रेष्ठ भाव से भजते हैं, उन दोनों प्रकार के उपासकों में उत्तम योगवेत्ता कौन है?

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भगवान प्रत्युत्तर में कहते हैं कि निराकार ब्रह्मा के उपासकों के साधन में परिश्रम अधिक है और शारीरिक कष्ट भी अधिक है। वे निराकार ब्रह्मा की उपासना करने वाले भक्त जन भी मुझे ही प्राप्त होते हैं लेकिन जो मेरे भक्त श्रेष्ठ श्रद्धा से युक्त होकर साकार रूप में मुझ सगुण भगवान की उपासना करते हैं, मैं उनको सर्वश्रेष्ठ भक्त योगी की मान्यता देता हूं अर्थात साकार भक्ति से निराकार परमेश्वर को प्राप्त करना सरल है। ऐसे मुझ सगुण रूप सच्चिदानंदघन परमात्मा का अनन्य भक्ति योग से निरंतर चिंतन करने वाले प्रेमी भक्तों का शीघ्र ही मैं मृत्यु रूप संसार समुद्र में उद्धार कर देता हूं।

भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि ऐसा भक्त जो सब में द्वेष भाव से रहित है, स्वार्थ रहित दयालु है, सुख-दुख की प्राप्ति में सम तथा क्षमावान है, ऐसा मुझ में दृढ़ निश्चय वाला भक्त मुझे अत्यंत प्रिय है। जो अपना मन और बुद्धि मुझ परमात्मा में लगाता है, वह साक्षात मुझ में निवास करता है।

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ऐसा श्रद्धायुक्त पुरुष जो मेरे परायण होकर निष्काम भाव से स्थिर बुद्धि होकर, आसक्ति का परित्याग कर मेरी आज्ञा रूप, धर्ममय अमृत का, प्रेम भाव से, सेवन करता है, वह भक्त मुझे अत्यंत प्रिय है।

इस प्रकार भगवान ने स्पष्ट किया कि जो भक्त इंद्रियों को वश में करके मन-बुद्धि से परे, सर्वव्यापी, निराकार सच्चिदानंदघन परमात्मा की उपासना करते हैं, वे मुझे ही प्राप्त करते हैं अर्थात वे मेरी ही उपासना करते हैं। निराकार और साकार में कोई भेद नहीं। वह निराकार ब्रह्म ही भक्तों के प्रेमवश साकार रूप में प्रकट होता है।

इस अध्याय में भगवान ने निराकार तथा साकार भक्ति का निरूपण किया तथा साकार भक्त को अपना सर्वश्रेष्ठ और सरल मार्ग बताया इसलिए इस अध्याय का नाम ‘भक्ति योग’ पड़ा। 

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