Edited By Niyati Bhandari,Updated: 27 Nov, 2022 01:39 PM
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हे अर्जुन! जो मेरे आविर्भाव तथा कर्मों की दिव्य प्रकृति को जानता है, वह इस शरीर को छोडऩे पर इस भौतिक संसार में पुन: जन्म नहीं लेता, अपितु मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता है।
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जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्वत:।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन।।
अनुवाद एवं तात्पर्य : हे अर्जुन! जो मेरे आविर्भाव तथा कर्मों की दिव्य प्रकृति को जानता है, वह इस शरीर को छोडऩे पर इस भौतिक संसार में पुन: जन्म नहीं लेता, अपितु मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता है।
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छठे श्लोक में भगवान के दिव्यधाम से उनके अवतरण की व्याख्या हो चुकी है। जो मनुष्य भगवान के आविर्भाव के सत्य को समझ लेता है वह इस भवबंधन से मुक्त हो जाता है और इस शरीर को छोड़ते ही वह तुरंत भगवान के धाम को लौट जाता है। भवबंधन के जीव की ऐसी मुक्ति सरल नहीं है। योगीजन पर्याप्त कष्ट तथा जन्म जन्मांतर के बाद ही मुक्ति प्राप्त कर पाते हैं। इतने पर भी उन्हें जो मुक्ति भगवान की निराकार ब्रह्मज्योति में तादात्म्य प्राप्त करने के रूप में होती है, वह आंशिक होती है और इस भौतिक संसार में लौट आने का भय बना रहता है।
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किन्तु भगवान के शरीर की दिव्य प्रकृति तथा उनके कार्यकलापों को समझने मात्र से भक्त इस शरीर की दिव्य प्रकृति तथा उनके कार्यकलापों को समझने मात्र से इस शरीर का अंत होने पर भगवद्धाम को प्राप्त करता है और उसे इस संसार में लौट कर आने का भय नहीं रह जाता। ब्रह्मसंहिता में यह बताया गया है कि भगवान के अनेक रूप तथा अवतार हैं : अद्वैतमच्युतमनादिमनन्तरूपम्।
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यद्यपि भगवान के अनेक दिव्य रूप हैं किन्तु फिर भी वे अद्वय भगवान हैं। इस तथ्य को विश्वासपूर्वक समझना चाहिए, यद्यपि यह संसारी विद्वानों तथा ज्ञानयोगियों के लिए अगम्य है। श्री भगवान को जान लेने से ही मनुष्य जन्म तथा मृत्यु से मुक्ति की पूर्ण अवस्था प्राप्त कर सकता है।
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