Edited By Niyati Bhandari,Updated: 12 Feb, 2023 10:19 AM
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व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन। बहुशाखा ह्यनन्ताश्र्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्।।
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Srimad Bhagavad Gita: व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन। बहुशाखा ह्यनन्ताश्र्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्।।
उक्त श्लोक में श्री कृष्ण कहते हैं (2.41) कर्म योग में बुद्धि निश्चयात्मिका (जो बिल्कुल दृढ़ हो) होती है और जो अस्थिर हैं उनकी बुद्धि बहुत भेदों वाली होती है।
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पूर्व के कुछ श्लोकों में श्री कृष्ण कहते हैं कि समत्व ही योग है, जो दो ध्रुवों जैसे सुख-दुख, हार-जीत और लाभ-हानि का मिलन है। जीवन में हम इनका सामना करते हैं। कर्म योग इन ध्रुवों को पार करने का मार्ग है, जो अंतत: एक निश्चयात्मिका बुद्धि में परिणत होता है। दूसरी ओर एक अस्थिर बुद्धि हमें ‘मन की शांति’ से वंचित कर देती है।
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हमारी सामान्य धारणा है कि जब हम आनंद, जीत और लाभ प्राप्त करते हैं तब ‘मन की शांति’ अपने आप आ जाती है, लेकिन श्री कृष्ण कहते हैं कि कर्म योग के अभ्यास से उत्पन्न एक निश्चयात्मिका बुद्धि हमें ध्रुवीयताओं को पार करने में मदद करके मन की शांति देती है।
अस्थिर बुद्धि विभिन्न स्थितियों, परिणामों और लोगों को अलग तरह से देखती है। अपने कार्यस्थल पर हम एक मानदंड अपने से नीचे के लोगों पर और दूसरा अपने से ऊपर के लोगों पर लागू करते हैं।
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बच्चों में ‘समत्व’ विकसित नहीं हो पाता है जब वे देखते हैं कि परिवार में विभिन्न परिस्थितियों का सामना करते हुए अलग-अलग मापदंड लागू होते हैं जहां हमारे पास प्रियजनों के लिए कुछ नियम होते हैं वहीं अन्यों के लिए वे कुछ और होते हैं।
दैनिक जीवन में हम धर्म, जाति, राष्ट्रीयता, हठधर्मिता आदि जैसे मिथकों के शिकार होते हैं। वे हमारे दिमाग में एक प्रभावशाली अवस्था में डाल दिए गए थे और वे हमें बांटते रहते हैं। इन सांझा मिथकों में से प्रत्येक के दो पक्ष हमें अलग-अलग तरीके से प्रभावित करते हैं।
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अनिश्चित बुद्धि के साथ हमारे पास अपनी और दूसरों की गलतियों को आंकने के लिए अलग-अलग मापदंड होते हैं। मदद मांगते समय और मदद करते समय हम अलग-अलग मुखौटा लगा लेते हैं।
श्री कृष्ण कहते हैं कि कर्मयोग के मार्ग पर चलने से ‘समत्व’ के योग्य एक ‘दृढ़ बुद्धि’ प्राप्त होती है जो मन की शांति की आधारशिला है।
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