Edited By Niyati Bhandari,Updated: 14 Sep, 2023 09:43 AM
‘मन में आग’ होने का अर्थ है भौतिक दुनिया में अपनी इच्छाओं, रुचियों और कर्तव्यों का पालन करने के लिए ऊर्जा तथा उत्साह से भरा होना। जब ऐसी ऊर्जा का उपयोग आत्म-साक्षात्कार
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Srimad Bhagavad Gita: ‘मन में आग’ होने का अर्थ है भौतिक दुनिया में अपनी इच्छाओं, रुचियों और कर्तव्यों का पालन करने के लिए ऊर्जा तथा उत्साह से भरा होना। जब ऐसी ऊर्जा का उपयोग आत्म-साक्षात्कार के लिए किया जाता है तो इसे ‘योग-अग्नि’ कहा जाता है। इस संदर्भ में श्री कृष्ण कहते हैं कि दूसरे योगीजन इन्द्रियों की सम्पूर्ण क्रियाओं को और प्राणों की समस्त क्रियाओं को ज्ञान से प्रकाशित आत्म संयम योगरूप अग्नि में हवन किया करते हैं (4.27)।
दैनिक जीवन में हम परमात्मा को सुंदर फूल और स्वादिष्ट भोजन जैसी इंद्रिय वस्तुएं चढ़ाते हैं। यह श्लोक हमें इससे परे ले जाता है और कहता है कि यज्ञ स्वाद, सौंदर्य या गंध जैसी इंद्रिय गतिविधियों को पेश करना है, न कि केवल इंद्रिय वस्तु। इन्द्रियां विषयों के प्रति आसक्ति के द्वारा हमें बाहरी जगत से जोड़ती रहती हैं और जब इन इन्द्रियों की बलि दी जाती है, तो एकता के साथ संगम शेष रह जाता है।
श्री कृष्ण आगे कहते हैं कि कई पुरुष द्रव्य संबंधी यज्ञ करने वाले हैं तथा दूसरे कितने ही योगरूप यज्ञ करने वाले हैं, कितने ही अहिंसा आदि तीक्ष्ण व्रतों से युक्त यत्नशील पुरुष स्वाध्याय रूपी ज्ञान यज्ञ करने वाले हैं। (4.28)
श्री कृष्ण ने यज्ञ में से एक के रूप में स्वाध्याय का उल्लेख किया। इस प्रक्रिया ने मनोविज्ञान, चिकित्सा और समकालीन स्वयं सहायता रचना जैसे कई विषयों को जन्म दिया। बचपन से ही हम पर राष्ट्रीयता, जाति या धर्म जैसे जन्म के समय अर्जित कारकों पर नामांकन किया जाता है और हम अपना शेष जीवन इन नामों का बचाव करने में ही व्यतीत कर देते हैं।
इस नामांकन में कम उम्र में बहुत अधिक दमन या हिंसा होती है। इसी तरह बुद्धिमान या बुद्धू, मेहनती या आलसी जैसी विशेषताओं के आधार पर नामकरण होता है और इनका अंत नहीं है। इसी तरह, हम कई कारकों के आधार पर अपने और दूसरों के बारे में धारणा बनाते हैं और उसी के बचाव में ऊर्जा खर्च करते हैं। स्वाध्याय यज्ञ के रूप में इन नामांकनों की जांच करना उनका बलिदान करना है।