Edited By Niyati Bhandari,Updated: 28 Oct, 2023 09:08 AM
श्री कृष्ण कहते हैं, ‘‘जिसने योग द्वारा कर्म को त्याग दिया है और अपने संदेहों को ज्ञान से दूर कर दिया है, वह स्वयं में स्थिर हो जाता है; कर्म उसे नहीं बांधता है (4.41)। अत: हृदय
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Srimad Bhagavad Gita: श्री कृष्ण कहते हैं, ‘‘जिसने योग द्वारा कर्म को त्याग दिया है और अपने संदेहों को ज्ञान से दूर कर दिया है, वह स्वयं में स्थिर हो जाता है; कर्म उसे नहीं बांधता है (4.41)। अत: हृदय में निवास करने वाले अज्ञान जनित संशय को ज्ञान रूपी तलवार से काटकर योग में स्थित हो जा। (4.42)’’
श्री कृष्ण हमें कर्म-बंधन से मुक्त होने के लिए ज्ञान की तलवार का उपयोग करने की सलाह देते हैं। जब हमारे द्वारा किए गए या नहीं किए गए कार्यों द्वारा चीजों या रिश्तों को नुक्सान होता है, जिससे हमें पश्चाताप होता है, जोकि एक प्रकार का कर्म बंधन है। इसी तरह, हमारे जीवन को नकारात्मक रूप से प्रभावित करने वाले दूसरों के कार्यों या निष्क्रियताओं के लिए ‘निंदा’ कर्म-बंधन का नाम है। ज्ञान की तलवार ही एकमात्र साधन है, जो हमें ‘खेद’ और ‘दोष’ के जटिल जाल से खुद को निकालने में मदद करती है।
गीता के चौथे अध्याय को ‘ज्ञान कर्म संन्यास योग’ कहा गया है। यह इस बात से शुरू होता है कि परमात्मा कैसे कर्म करता है और हमें बताता है कि सभी कर्मों को नि:स्वार्थ कर्मों के यज्ञ की तरह करना चाहिए। तब श्री कृष्ण ज्ञान का पहलू लाते हैं, जब वह कहते हैं कि बिना किसी अपवाद के किए गए सभी कार्य ज्ञान में परिणत होते हैं। (4.33)
शीर्षक में, ज्ञान का अर्थ है बुद्धिमत्ता या जागरूकता। यह इंगित करता है कि जागरूकता के साथ कर्म करना ही संन्यास है। संन्यास सांसारिक चीजों या व्यवसायों को त्याग कर जिम्मेदारी से बचने या भागने का मार्ग नहीं है। श्री कृष्ण के लिए संन्यास का मतलब यह है कि हमारी क्षमता के अनुसार जागरूकता और बुद्धिमत्ता के साथ अस्तित्व द्वारा सौंपे गए कर्मों को हमें करना है।
वास्तव में, कोई पलायन नहीं है क्योंकि शांति के लिए आवश्यक ज्ञान हमारे भीतर ही है, जो खोजे जाने की प्रतीक्षा कर रहा है। जब हम जागरूकता और बुद्धिमत्ता से भर जाते हैं, तो नरक भी स्वर्ग बन जाता है। इसके विपरीत, एक अज्ञानी मन स्वर्ग को भी नर्क में बदल सकता है। कुंजी आंतरिक परिवर्तन है।