Srimad Bhagavad Gita: ज्ञानी और एक भ्रांत व्यक्ति का व्यवहार एक जैसा होता है

Edited By Prachi Sharma,Updated: 25 Aug, 2024 08:25 AM

srimad bhagavad gita

श्रीकृष्ण कहते हैं, ‘‘संसार में इच्छा और द्वेष से उत्पन्न द्वंद्व रूपी मोह से सम्पूर्ण प्राणी अत्यंत अज्ञानता को प्राप्त हो

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श्रीकृष्ण कहते हैं, ‘‘संसार में इच्छा और द्वेष से उत्पन्न द्वंद्व रूपी मोह से सम्पूर्ण प्राणी अत्यंत अज्ञानता को प्राप्त हो रहे हैं (7.27)।’’

हम दो मूल भ्रांतियों के अधीन हैं। पहला तीन गुणों से उत्पन्न योग-माया है और दूसरा इच्छा और द्वेष के ध्रुवों से उत्पन्न होता है। जब एक का अतिक्रमण हो जाता है, तो दूसरा स्वत: ही पार हो जाता है।

अज्ञानता भ्रांति का प्रथम स्तर है जिसका परिणाम दुर्गति है। यह दुर्गति उस दर्द के सिवा और कुछ नहीं है, जो हम इसके ध्रुवीय विपरीत सुख का पीछा करते हुए पाते हैं, भले ही कुछ समय बीत जाने के बाद।  भ्रांति का अगला स्तर दमन है जहां व्यक्ति मुखौटा लगाकर बाहरी दुनिया को यह दिखाने का प्रयास करते हैं कि वे अंदर के इच्छा और द्वेष के द्वंद्व से मुक्त हैं।

वे दूसरों को नीचा दिखाते हैं और श्रीकृष्ण उन्हें मिथ्याचारी अर्थात दम्भी कहते हैं (3.6) लेकिन असलियत में ये दमन भीतर छिपे होते हैं और कमजोर क्षणों में बाहर आ जाते हैं।

एक ज्ञानी की तरह साक्षी की अंतिम अवस्था को प्राप्त करने के लिए, श्रीकृष्ण इन भ्रांतियों को दूर करने का मार्ग सुझाते हैं और कहते हैं, ‘‘परंतु निष्काम भाव से श्रेष्ठ कर्मों का आचरण करने वाले जिन पुरुषों का पाप नष्ट हो गया है, वे राग-द्वेष जनित द्वंद्व रूपी मोह से मुक्त दृढ़ निश्चयी भक्त मुझको सब प्रकार से भजते हैं (7.28)।’’ यह परमात्मा को समर्पण करके निमित्त मात्र होना है।

ध्यान देने योग्य बात यह है कि किसी दी हुई परिस्थिति में, एक ज्ञानी और एक भ्रांत व्यक्ति का व्यवहार एक जैसा हो सकता है यानी दोनों में अज्ञानता या दमन दिख सकता है, परंतु दोनों में अंतर भीतरी है।

ज्ञानी सुख-दु:ख, लाभ-हानि, जय-पराजय के बीच एक आंतरिक संतुलन प्राप्त करता है और वह किसी प्रकार के कर्मबंधन में नहीं बंधता। भ्रांत व्यक्ति असंतुलित होता है और उसका कर्मबंधन पत्थर पर लेखन जैसा होता है जिसका प्रभाव लंबे समय तक रहता है। यह समझने में हमें कठिनाई होती है क्योंकि उदाहरण हमें मदद नहीं कर सकते हैं।


 

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