Edited By Prachi Sharma,Updated: 28 Aug, 2024 12:17 PM
हे कृष्ण ! उस असफल योगी की गति क्या हो जो प्रारंभ में श्रद्धापूर्वक आत्म साक्षात्कार की विधि ग्रहण करता है किन्तु बाद में भौतिकता के कारण उससे विचलित हो जाता है और योग
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आनंद तथा ज्ञान में निहित है ‘सुख’
अयित: श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानस:।
अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति॥6.37॥
अर्जुन ने कहा : हे कृष्ण ! उस असफल योगी की गति क्या हो जो प्रारंभ में श्रद्धापूर्वक आत्म साक्षात्कार की विधि ग्रहण करता है किन्तु बाद में भौतिकता के कारण उससे विचलित हो जाता है और योग सिद्धि प्राप्त नहीं कर पाता ?
तात्पर्य : भगवद्गीता में आत्मसाक्षात्कार या योग मार्ग का वर्णन है। आत्मसाक्षात्कार का मूलभूत नियम यह है कि जीवात्मा यह भौतिक शरीर नहीं है, अपितु इससे भिन्न है और उसका सुख शाश्वत जीवन, आनंद तथा ज्ञान में निहित है। ये शरीर तथा मन दोनों से परे हैं।
आत्म साक्षात्कार की खोज ज्ञान द्वारा की जाती है। इसके लिए अष्टांग विधि या भक्ति योग का अभ्यास करना होता है। इनमें से प्रत्येक विधि में जीव को अपनी स्वाभाविक स्थिति, भगवान से अपने संबंध तथा उन कार्यों की अनुभूति प्राप्त करनी होती है, जिनके द्वारा वह टूटी हुई शृंखला को जोड़ सके और कृष्णभावनामृत की सर्वोच्च सिद्ध अवस्था प्राप्त कर सके।
इन तीन विधियों में से किसी एक का भी पालन करके मनुष्य देर-सवेर अपने चरम लक्ष्य को प्राप्त होता है। भगवान ने द्वितीय अध्याय में इस पर बल दिया कि दिव्य मार्ग में थोड़े से प्रयास से भी मोक्ष की महती आशा है। भले ही कोई आत्मसाक्षात्कार के मार्ग को निष्ठापूर्वक क्यों न स्वीकार करें, किन्तु ज्ञान की अनुशीलन विधि तथा अष्टांगयोग का अभ्यास इस युग के लिए सामान्यतया बहुत कठिन है।