स्वामी प्रभुपाद: कर्म का महत्व

Edited By Prachi Sharma,Updated: 03 Oct, 2024 03:09 PM

srimad bhagavad gita

अनुवाद एवं तात्पर्य : प्रत्येक व्यक्ति को प्रकृति से प्राप्त गुणों के अनुसार विवश होकर कर्म करना पड़ता है, अत: कोई एक क्षण के लिए भी बिना कर्म किए नहीं रह सकता। यह देहधारी जीवन का प्रश्र नहीं है

शास्त्रों की बात, जानें धर्म के साथ

न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते ह्यवश: कर्म सर्व: प्रकृतिजैर्गुणै:।

अनुवाद एवं तात्पर्य : प्रत्येक व्यक्ति को प्रकृति से प्राप्त गुणों के अनुसार विवश होकर कर्म करना पड़ता है, अत: कोई एक क्षण के लिए भी बिना कर्म किए नहीं रह सकता। यह देहधारी जीवन का प्रश्र नहीं है बल्कि आत्मा का यह स्वभाव है कि वह सदैव सक्रिय रहती है।

PunjabKesari Srimad Bhagavad Gita

आत्मा की अनुपस्थिति में भौतिक शरीर हिल भी नहीं सकता। यह शरीर मृत वाहन के समान है जो आत्मा द्वारा चालित होता है क्योंकि आत्मा सदैव गतिशील (सक्रिय) रहती है और वह एक क्षण के लिए भी नहीं रुक सकती। अत: आत्मा को कृष्णभावनामृत के सत्कर्म में प्रवृत्त रखना चाहिए वर्ना वह माया द्वारा शासित कार्यों में प्रवृत्त होती रहेगी।

माया के संसर्ग में आकर आत्मा भौतिक गुण प्राप्त कर लेती है और उसे ऐसे आकर्षणों से शुद्ध करने के लिए आवश्यक है कि शास्त्रों द्वारा बताए कर्मों में इसे संलग्न रखा जाए परन्तु यदि आत्मा कृष्णभावनामृत के अपने स्वाभाविक कर्म में निरंतर रहती है तो वह जो भी करती है, उसके लिए कल्याणप्रद होता है।

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श्रीमद् भागवत द्वारा इसकी पुष्टि हुई है- ‘‘यदि कोई कृष्णभावनामृत अंगीकार कर लेता हो तो भले ही वह शास्त्र द्वारा अनुमोदित कर्मों को न करे या ठीक से भक्ति न करे और चाहे वह पतित भी हो जाए तो इसमें उसकी हानि या बुराई नहीं होगी किन्तु यदि वह शास्त्र द्वारा अनुमोदित सारे कार्य करे और कृष्णभावनाभावित न हो तो ये सारे कार्य उसके किस लाभ के हैं ?’’

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