Edited By Niyati Bhandari,Updated: 24 Nov, 2024 10:42 AM
Srimad Bhagavad Gita: इस अध्याय में भगवान श्री कृष्ण जी ने स्पष्ट किया है कि अगर मेरे आश्रित होकर मनुष्य कर्म करके फल प्राप्त कर लेता है तो उसे कर्म बंधन नहीं होता। ऐसे भक्त जो नित्य निरंतर प्रभु का ही चिंतन करते हैं, भगवान स्वयं उन्हें योगक्षेम...
शास्त्रों की बात, जानें धर्म के साथ
Srimad Bhagavad Gita: इस अध्याय में भगवान श्री कृष्ण जी ने स्पष्ट किया है कि अगर मेरे आश्रित होकर मनुष्य कर्म करके फल प्राप्त कर लेता है तो उसे कर्म बंधन नहीं होता। ऐसे भक्त जो नित्य निरंतर प्रभु का ही चिंतन करते हैं, भगवान स्वयं उन्हें योगक्षेम प्रदान करते हैं लेकिन जो मनुष्य वेदों में विधान किए गए सकाम कर्मों को करते हैं वे उनके फलस्वरूप विशाल स्वर्ग लोक को तो भोग लेते हैं परंतु पुण्य क्षीण होने पर पुन: मृत्यु लोक को प्राप्त होते हैं।
भगवान स्वयं अपने मुखारविंद से कहते हैं कि मैं ही कर्मों के फल प्रदान करता हूं मैं ही पवित्र ओंकार हूं। मैं ही ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद हूं। मैं ही इस जगत को धारण करता हूं। कल्पों के अंत में सब भूत मेरी ही प्रकृति में लय होते हैं, कल्प के आदिकाल में मैं उनको पुन: रचता हूं।
मेरी ही अध्यक्षता में प्रकृति सम्पूर्ण चराचर जगत को रचती है। सांसारिक जीवन में आसक्त मनुष्य को अगर भगवान के उपरोक्त कथन का ज्ञान हो जाए और उसमें श्रद्धा हो जाए तो वह मनुष्य इस पवित्र गोपनीय प्रत्यक्ष फल प्रदान करने वाले तथा सबसे सुगम इस ज्ञान से दुख रूप संसार से मुक्त हो जाएगा।
लेकिन भगवान के इस परमभाव को न जानने वाले, जो मनुष्य संसार के उद्धार के लिए भगवान के अवतरण को नहीं जानते तथा उन्हें साधारण मनुष्य समझते हैं, वे अज्ञानीजन आसुरी और मोहिनी प्रकृति को धारण किए हुए संसार में भटकते रहते हैं। इस अध्याय में भगवान ने स्पष्ट किया है कि जो भक्तजन मुझे प्रेम से पुष्प, पत्र, फल, जल अर्पित करते हैं, मैं निराकार होते हुए भी साकार रूप से प्रकट होकर प्रीति सहित उन्हें खाता हूं।
यदि कोई अतिशय दुराचारी भी पवित्र मन से भगवान को भजता है, भगवान उसे भी स्वीकार कर धर्मात्मा की पदवी प्रदान कर देते हैं और उसे वचन देते हैं कि मेरे आश्रित रहने वाला, मेरा भक्त कभी नष्ट नहीं होता। चाहे वह किसी भी वर्ण, जाति, सम्प्रदाय से हो क्योंकि मैं सब भूतों में समभाव से व्यापक हूं।
अत: भगवान अर्जुन से कहते हैं कि ‘मन्मना भव’ अर्थात मुझ में मन लगा मेरा भक्त बन, मेरा पूजन करने वाला हो और मुझको प्रणाम कर इतने मात्र से ही तू मुझे प्राप्त हो जाएगा।
इस अध्याय में भगवान श्री कृष्ण ने सभी वर्णों के लिए कल्याण के द्वार खोल दिए। गृहस्थ आश्रम में विषयासक्त मनुष्य भी अगर भगवान की उपरोक्त आज्ञा का पालन करें तो उनका कल्याण निश्चित है इसलिए इस अध्याय का नामकरण राज विद्या राजगुह्य योग रखा गया।