Edited By Sarita Thapa,Updated: 10 Jan, 2025 02:01 PM
Srimad Bhagavad Gita: कहते हैं ‘जैसा अन्न वैसा मन; जैसा मन वैसे विचार; जैसे विचार वैसा आचार और जैसा आचार वैसा स्वास्थ्य’। इसी संबंध में श्रीमद्भगवदगीता में कहा गया है
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Srimad Bhagavad Gita: कहते हैं ‘जैसा अन्न वैसा मन; जैसा मन वैसे विचार; जैसे विचार वैसा आचार और जैसा आचार वैसा स्वास्थ्य’। इसी संबंध में श्रीमद्भगवदगीता में कहा गया है।
‘आयु: सत्व वलारोग्य सुख प्रीतिविवर्धना:।
रस्या: स्निग्धा: स्थिरा हृघा आहारा सात्त्विकप्रिया:॥’
अर्थात ‘सात्विक आहार ही आयु, बुद्धि, बल, आरोग्य सुख और प्रीति की वृद्धि करने वाला होता है। इसके विपरीत राजसिक आहार, चाहे वह अधिक स्वादिष्ट तथा चटपटा क्यों न हों, पर अंत में वह रोग, दु:ख और चिंता उत्पन्न करने वाला ही सिद्ध होता है।’
ज्यादातर लोग ऊर्जा प्राप्त करने के लिए ही भोजन करते हैं, किन्तु बड़े आश्चर्य की बात है कि विश्व की सभी प्रजातियों में से एकमात्र मनुष्य ही ऐसा है, जिसे प्राकृतिक अवस्था में पाया जाने वाला कच्चा खाना या कच्चे खाद्य बिल्कुल नापसंद हैं। अन्य जानवर, जो बिना पकाया हुआ खाना खाने के आदि हैं, उनकी तुलना में मनुष्य अपनी स्वाद इंद्रियों की संतुष्टता के लिए नाना प्रकार की खाना पकाने की तकनीकों को अपनाता है, जिसके परिणामस्वरूप उसके आहार में से पौष्टिकता सम्पूर्णत: नष्ट हो जाती है।
शास्त्रों ने आहार को तीन प्रकार में वर्गीकृत किया है : सात्विक, राजसिक और तामसिक। सात्विक भोजन ग्रहण करने से मनुष्य के भीतर आध्यात्मिक भावों की वृद्धि होती है एवं उनका मन सद्गुणों की ओर झुकता है, राजसिक और तामसिक भोजन ग्रहण करने से आत्मा पर अंधकार का पर्दा पड़ने लगता है और सद्विवेक की शक्ति कुंठित होकर मन कुमार्ग पर जाने लगता है। इसका अंतिम परिणाम पतन के सिवाय और कुछ नहीं। छांदोग्य उपनिषद में कहा गया है कि -
‘आहारशुद्धौ सत्तवशुद्धि: धु्रवा स्मृति:।
स्मृतिलम्भे सर्वग्रन्थीनां विप्रमोक्ष:॥’
अर्थात आहार शुद्ध होने से अंत: करण शुद्ध होता है और इससे ईश्वर में स्मृति दृढ़ होती है। स्मृति प्राप्त हो जाने से हृदय की अविद्या जनित सभी गांठें खुल जाती हैं।
गीता कहती है कि ‘जो खाद्य पदार्थ अति कड़वे, खट्टे, नमकीन, तीखे, शुष्क और गर्म होते हैं, वे शरीर के लिए पीड़ादायक होते हैं एवं उसे रोग का घर बना देते हैं।’
अत: यदि मनुष्य अच्छी गुणवत्ता वाला जीवन जीना चाहते हैं, तो उन्हें सर्वप्रथम अपनी स्वाद इंद्रियों को वश में करना होगा और अपने आहार का इस प्रकार से नियमन करना होगा, जिससे उन्हें पूर्ण मात्रा में शक्ति तो मिले ही परन्तु उसके साथ-साथ शरीर भी निरोगी बना रहे। यदि हम सचमुच ही सुखमय और शांतिमय जीवन जीने के इच्छुक हैं, तो उसके लिए हमें अपने आहार में सुधार लाना ही होगा।
हमारा भोजन न्याययुक्त उपायों से उपार्जित, किसी भी प्राणी को किसी प्रकार का कष्ट न होकर प्राप्त किया हुआ एवं सात्विक-गुणयुक्त तो होना ही चाहिए, पर वह यथासंभव स्वाभाविक और प्राकृतिक अवस्था में भी हो।
तो क्या हम आग पर पकाए हुए भोजन को पूर्णतया त्याग कर केवल फल, मूल और पत्तों का ही उपयोग करे? जी नहीं! परंतु अपने स्वास्थ्य के लाभार्थ हम सभी इतना तो अवश्य ही कर सकते हैं कि पके हुए भोजन के परिमाण में कमी करके उसके साथ कच्चे फल, शाक, पत्तों का उपयोग करें और अपनी शारीरिक तथा आर्थिक परिस्थिति को देखते हुए प्राकृतिक भोजन का परिमाण क्रमश: बढ़ाते जाएं।