भगवान के नियमों की अवज्ञा करने वाले को मिलता है ये दंड

Edited By Jyoti,Updated: 29 Aug, 2022 12:00 PM

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अनुवाद : चतुर जीवात्मा की शुद्ध चेतना उसके ‘काम’ रूपी नित्य शत्रु से ढंकी रहती है, जो कभी तुष्ट नहीं होता और अग्नि के समान जलता रहता है।

शास्त्रों की बात, जानें धर्म के साथ
श्रीमद्भगवद्गीता
यथारूप
व्याख्याकार :
स्वामी प्रभुपाद
साक्षात स्पष्ट ज्ञान का उदाहरण 

‘कामसुख’ की तृप्ति नहीं होती

श्रीमद्भगवद्गीता श्लोक-

आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा।
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च॥
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अनुवाद : चतुर जीवात्मा की शुद्ध चेतना उसके ‘काम’ रूपी नित्य शत्रु से ढंकी रहती है, जो कभी तुष्ट नहीं होता और अग्नि के समान जलता रहता है। 

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तात्पर्य : मनुस्मृति में कहा गया है कि कितना भी विशेष भोग क्यों न किया जाए ‘काम’ की तृप्ति नहीं होती, जिस प्रकार निरंतर ईंधन डालने से अग्नि कभी नहीं बुझती। भौतिक जगत में समस्त कार्यकलापों का केंद्र बिंदू मैथुन (कामसुख) है, अत: इस जगत को मैथुन्य-आगार या विषयी-जीवन की हथकड़ियां कहा गया है। एक सामान्य बंदीगृह में अपराधियों को छड़ों के भीतर रखा जाता है, इसी प्रकार जो अपराधी भगवान के नियमों की अवज्ञा करते हैं वे मैथुन-जीवन द्वारा बंदी बनाए जाते हैं।
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इंद्रिय तृप्ति के आधार पर भौतिक सभ्यता की प्रगति का अर्थ है, इस जगह में जीवात्मा की अवधि को बढ़ाना। अत: यह काम अज्ञान का प्रतीक है जिसके द्वारा जीवात्मा को इस संसार में रखा जाता है। इंद्रिय तृप्ति का भोग करते समय हो सकता है कि कुछ प्रसन्नता की अनुभूति हो किन्तु यह प्रसन्नता की अनुभूति ही इंद्रियभोक्ता की चरम शत्रु है। (क्रमश:)

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