Edited By Jyoti,Updated: 26 Jul, 2022 04:36 PM
अनुवाद : ज्ञानी पुरुष भी अपनी प्रकृति के अनुसार कार्य करता है, क्योंकि सभी प्राणी तीनों गुणों से प्राप्त अपनी प्रकृति का ही अनुसरण करते हैं। भला दमन से क्या हो सकता है?
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श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति माया के बंधन से बंधा हुआ है। कहा जाता जो व्यक्ति अपने जीवन में मोह माया से नहीं छूट पाता वो इंसान कृष्णभावनामृत से सदैव दूर ही रह जाता है। आज आगे दिए श्रीमद्भगवद्गीता के श्लोक के माध्यम से हम आपको इसी संदर्भ से जुड़ी जानकारी देने जा रहे हैं की आखिर माया के बंधन से मपक्ति कैसे पाई जा सकता है और ये क्यों जरूरी है।
श्रीमद्भगवद्गीता
यथारूप
व्याख्याकार :
स्वामी प्रभुपाद
साक्षात स्पष्ट ज्ञान का उदाहरण भगवद्गीता
श्रीमद्भगवद्गीता श्लोक
सद्दशं चेष्टते स्वस्या: प्रकृतेज्र्ञानवानपि।
प्रकृङ्क्षत यान्ति भूतानि निग्रह: किं करिष्यति।।
अनुवाद : ज्ञानी पुरुष भी अपनी प्रकृति के अनुसार कार्य करता है, क्योंकि सभी प्राणी तीनों गुणों से प्राप्त अपनी प्रकृति का ही अनुसरण करते हैं। भला दमन से क्या हो सकता है?
तात्पर्य : कृष्भावनामृत के दिव्य पद पर स्थित हुए बिना प्रकृति के गुणों के प्रभाव से मुक्त नहीं हुआ जा सकता, जैसा कि स्वयं भगवान ने सातवें अध्याय में (7.14) कहा है। अत: सांसारिक धरातल पर बड़े से बड़े शिक्षित व्यक्ति के लिए केवल सैद्धांतिक ज्ञान से आत्मा को शरीर से पृथक करके माया के बंधन से निकल पाना असंभव है।
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ऐसे अनेक तथाकथित अध्यात्मवादी हैं, जो अपने को विज्ञान में बढ़ा-चढ़ा मानते हैं, किंतु भीतर-भीतर वे पूर्णतया प्रकृति के गुणों के अधीन रहते हैं, जिन्हें जीत पाना कठिन है। ज्ञान की दृष्टि से कोई कितना ही विद्वान क्यों न हो जाए किंतु भौतिक प्रकृति की दीर्घकालिक संगति के कारण वह हमेशा बंधन में ही बंधा रहता है। कृष्णभावनामृत उसे भौतिक बंधन से छूटने में सहायक होता है, भले ही कोई अपने नियत कर्मों के करने में संलग्र क्यों न रहे। अत: पूर्णतया कृष्णभावनाभावित हुए बिना नियत कर्मों का परित्याग नहीं करना चाहिए। किसी को भी सहसा अपने नियत कर्म त्याग कर तथाकथित योगी या कृत्रिम अध्यात्मवादी नहीं बन जाना चाहिए। अच्छा तो यह होगा कि यथास्थिति में रहकर श्रेष्ठ प्रशिक्षण के अंतर्गत कृष्णभावनामृत प्राप्त करने का प्रयत्न किया जाए। इस प्रकार कृष्ण की माया के बंधन से मुक्त हुआ जा सकता है। (क्रमश:)