Edited By Jyoti,Updated: 16 Sep, 2022 02:49 PM
अनुवाद: भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन! प्रारंभ में ही इंद्रियों को वश में करके इस पाप के महान प्रतीक ‘काम’ का दमन करो और ज्ञान तथा आत्म साक्षात्कार के इस विनाशकर्ता का वध करो।
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श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप
यथारूप
व्याख्याकार :
स्वामी प्रभुपाद
साक्षात स्पष्ट ज्ञान का उदाहरण भगवद्गीता
तस्मात्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ।
प्राप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम्॥
अनुवाद: भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन! प्रारंभ में ही इंद्रियों को वश में करके इस पाप के महान प्रतीक ‘काम’ का दमन करो और ज्ञान तथा आत्म साक्षात्कार के इस विनाशकर्ता का वध करो।
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तात्पर्य : भगवान ने अर्जुन को प्रारम्भ से ही इंद्रिय संयम करने का उपदेश दिया जिससे वह सबसे पापी शत्रु ‘काम’ का दमन कर सकें जो आत्म साक्षात्कार तथा आत्मज्ञान की उत्कंठा को विनष्ट करने वाला है। ज्ञान का अर्थ है आत्म तथा अनात्म के भेद का बोध अर्थात वह ज्ञान कि आत्मा शरीर नहीं है। विज्ञान से आत्मा की स्वाभाविक स्थिति तथा परमात्मा के साथ उसके संबंध का विशिष्ट ज्ञान सूचित होता है। भगवद् गीता हमें आत्मा का सामान्य तथा विशिष्ट ज्ञान प्रदान करती है। जीव भगवान के ही अंश हैं, अत: मनुष्य को जीवन के प्रारंभ से इस कृष्णभावनामृत को सीखना होता है। अत: जीवन की किसी भी अवस्था में या जब भी इसकी अनिवार्यता समझी जाए, मनुष्य कृष्णभावना या भगवद्भक्ति के द्वारा इंद्रियों को वश में करना प्रारंभ कर सकता है और ‘काम’ को भगवत्प्रेम में बदल सकता है जो मानव जीवन की पूर्णता की चरम अवस्था है। (क्रमश:)