Edited By Jyoti,Updated: 05 Jun, 2020 04:56 PM
अनुवाद : मैं यहां अब और अधिक खड़ा रहने में असमर्थ हूं। मैं अपने को भूल रहा हूं और मेरा सिर चकरा रहा है। हे कृष्ण ! मुझे तो केवल अमंगल के लक्षण दिख रहे हैं।
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श्रीमद्भगवद्गीता
यथारूप
व्याख्याकार :
स्वामी प्रभुपाद
अध्याय 1
साक्षात स्पष्ट ज्ञान का
उदाहरण भगवदगीता
श्लोक-
नच शक्नोमयवस्थातुं भ्रगतीव च मे मन: ।
निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव ॥
अनुवाद : मैं यहां अब और अधिक खड़ा रहने में असमर्थ हूं। मैं अपने को भूल रहा हूं और मेरा सिर चकरा रहा है। हे कृष्ण ! मुझे तो केवल अमंगल के लक्षण दिख रहे हैं।
तात्पर्य : अपने अधैर्य के कारण अर्जुन युद्धभूमि में खड़ा रहने में असमर्थ था और अपने मन की इस दुर्बलता के कारण उसे आत्मविस्मृति हो रही थी। भौतिक वस्तुओं के प्रति अत्यधिक आसक्ति के कारण मनुष्य ऐसी मोहमयी स्थिति में पड़ जाता है ।ऐसा भय तथा मानसिक असंतुलन उन व्यक्तियों में उत्पन्न होता है जो भौतिक वथारूप परिस्थितियों से ग्रस्त होते हैं
अर्जुन को युद्धभूमि में केवल दुखदायी पराजय की प्रतीति हो रही थी कि वह शत्रु पर विजय पाकर भी सुखी नहीं होगा। जब मनुष्य को अपनी आशाओं में केवल निराशा दिखती है तो वह सोचता है कि “मैं यहां क्यों हूं ?''
प्रत्येक प्राणी अपने में तथा अपने स्वार्थ में रुचि रखता है। किसी की भी परमात्मा में रुचि नहीं होती। श्री कृष्ण की इच्छा से अर्जुन अपने स्वार्थ के प्रति अज्ञान दिखा रहा है।
मनुष्य का वास्तविक स्वार्थ तो विष्णु या कृष्ण में निहित है। बद्धजीव इसे भूल जाता है इसीलिए उसे भौतिक कष्ट उठाने पड़ते हैं। अर्जुन ने सोचा कि उसकी विजय केवल उसके शोक का कारण बन सकती है।