Edited By Niyati Bhandari,Updated: 11 Sep, 2023 09:40 AM
अयोध्या के चक्रवर्ती सम्राट और रामायण के महानायक प्रभु श्री राम के पिता महाराज दशरथ का नाम अपने आप में प्रात: स्मरणीय एवं पुण्यदायी माना जाता है। कहा
शास्त्रों की बात, जानें धर्म के साथ
Maharaj dashrath of ramayan: अयोध्या के चक्रवर्ती सम्राट और रामायण के महानायक प्रभु श्री राम के पिता महाराज दशरथ का नाम अपने आप में प्रात: स्मरणीय एवं पुण्यदायी माना जाता है। कहा जाता है कि जिसके ऊपर राम कुपित हों उसे बस दशरथ नाम का जाप करना मात्र ही पर्याप्त है और वह समस्त पापों से छुटकारा पा कर मोक्ष को प्राप्त होता है। दशरथ नाम की महिमा है ही ऐसी कि सौ बार राम नाम का जाप न करके बस एक बार दशरथ नाम का जाप कीजिए और बैकुंठ धाम की राह पकड़िए। राम के भक्त कवि व विद्वान ही नहीं अपितु सद्गुरू कबीर भी अपने तरीके से दशरथ नाम की महिमा का बखान करते हुए कहते हैं :
राम राम तो सब जपै, दशरथ जपै न कोय, एक बार दशरथ जपै, तो सहस्र राम जप होय।
वस्तुत: यहां दशरथ केवल राम के पिता ‘दशरथ’ मात्र नहीं हैं अपितु ‘दशरथ’ से अभिप्राय दसों इंद्रियों से है। रामायण में जिस दशरथ का वर्णन आता है वह कौशलराज एवं अयोध्यापति दशरथ हैं जो न केवल श्री राम के पिता हैं बल्कि उनके राम सहित चार बड़े ही होनहार पुत्र भरत, लक्ष्मण व शत्रुघ्न अपनी और अपने पिता की ख्याति को चार चांद लगाते हैं। ये वही दशरथ हैं जिनकी कौशल्या, कैकेयी व सुमित्रा जैसी तीन अति सुंदर व शीलवान रानियां हैं।
कहा जाता है कि कौशलराज ने दशरथ की अप्रतिम वीरता को देखते हुए अयोध्या तथा कौशल प्रदेश में रणनीतिक संबंध स्थापित करने के लिए अपनी पुत्री का विवाह उनसे किया था और उनके बाद दशरथ ही कौशल प्रदेश के भी राजा बने। महाराजा दशरथ के अप्रतिम शौर्य से प्रभावित होकर ही देव और दानवों के बीच युद्ध के समय इंद्र ने उनसे देवताओं की सहायता करने का आग्रह किया था।
दशरथ ने देवताओं की ओर से युद्ध में शामिल होकर देवताओं की विजय में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इसी युद्ध में कैकेयी उनके सारथी के रूप में गई थी और एक अवसर पर जब दशरथ के रथ की धुरी टूट गई तब कैकेयी ने अपनी उंगली की उसकी जगह लगाकर उनकी प्राण रक्षा की थी। इससे प्रसन्न होकर ही दशरथ ने कैकेयी को दो वरदान देने का वचन दिया था जिनका उपयोग उसने राम को होने जा रहे राजतिलक को रुकवाने तथा भारत को राजगद्दी दिलवाने के लिए किया था। बाद में यही वरदान महाराज दशरथ की मृत्यु का कारण बने।
श्री राम को महाराज दशरथ अपने प्राणों से भी बढ़ कर चाहते थे। वह चाहते तो अपने वचन से पलट कर श्री राम को अयोध्या का राजा बना देते परन्तु ‘रघुकुल रीत सदा चली आई, प्राण जाए पर वचन न जाई’ की समृद्ध परम्परा निभाते हुए महाराज दशरथ ने प्राण देना वचन भंग करने का अपयश लेने से कहीं अधिक श्रेयस्कर समझा। वास्तव में ऐसा करके दशरथ भारतीय समाज में एक वचनबद्धता व उच्च मूल्य छोड़ गए।
महाराज दशरथ के बारे में विभिन्न रामायणों में पढ़ने पर पता चलता है कि वह ऐसे ही चक्रवर्ती सम्राट नहीं बने। कहते हैं कि रावण को एक बार दशरथ की बढ़ती प्रतिष्ठा से ईर्ष्या होने लगी तथा उसने अपने दूत के माध्यम से दशरथ को उसकी दासता स्वीकार करने के लिए ललकारा। जब दूत ने रावण का यह संदेश महाराज दशरथ को दिया तब दशरथ ने अपने दरबार में बैठे-बैठे ही एक साथ चार बाण छोड़ कर दूत से कहा कि वापस लंका जाने पर उसे लंका का द्वार बंद मिलेगा।
दूत ने वापस जाकर ऐसा ही देखा तथा सारी घटना रावण से कह सुनाई। इससे रावण बहुत ही लज्जित हुआ तथा उसने ब्रह्मा की तपस्या करके दशरथ को पुत्रवान न होने देने का वर मांग लिया। कहा जाता है कि इसी वर के चलते दशरथ को लम्बे समय तक पुत्र सुख से वंचित रहना पड़ा। बाद में पुत्रेष्टि यज्ञ करने पर ही उन्हें चार वीर पुत्र मिले।
रामायण में दशरथ के केवल चार पुत्र होने का ही उल्लेख मिलता है परन्तु उनकी शांता नामक एक पुत्री भी थीं जो कौशल्या से उत्पन्न हुई थीं तथा सबसे बड़ी थीं। उनका विवाह शृंगी ऋषि से होने का उल्लेख पाया जाता है।
दशरथ की वंश परम्परा अतीव गौरवशाली थी। वह इक्ष्वाकु वंश में जन्मे थे जिसे बाद में सूर्य वंश के नाम से भी जाना गया। दशरथ के पूर्वजों में राजा हरिश्चंद्र, राजा दिलीप, राजा रघु और राजा अज का होना पाया जाता है। वह परम प्रतापी राजा अज के पुत्र थे।
कहा जाता है कि महाराज दशरथ की ध्वनिभेदी बाण चलाने में निपुणता प्राप्त थी परन्तु शायद अति आत्मविश्वास के चलते वह एक बार चूक गए जब दूर कहीं हिरण के पानी पीने की आवाज सुनकर उन्होंने शर संधान किया और श्रवण कुमार का वध कर डाला जिसके अंधे माता-पिता ने मरते हुए दशरथ को पुत्र वियोग में प्राण त्यागने का श्राप दे दिया। जो राम के वनवास के बाद सत्य सिद्ध हुआ।
महाराज दशरथ का राज्य प्रबंधन भी बड़ा अच्छा था। सामान्य प्रशासन का कार्य उनके सबसे योग्य मंत्री सुमंत संभालते थे जबकि युद्ध मंत्री के रूप में धृष्टि उनके मंत्री थे। धर्म-कर्म के कार्यों का प्रबंधन धर्मपाल नामक मंत्री के जिम्मे था। पुरोहित के रूप में वशिष्ठ उनके पथ प्रदर्शक थे।
महर्षि विश्वामित्र के आग्रह पर उन्होंने अपने अल्पवयस्क पुत्रों राम व लक्ष्मण को भी यज्ञ की रक्षार्थ भेज दिया। महाराज दशरथ को अपने समय में धर्मावतार माना जाता था और इसी कारण स्वयं भगवान विष्णु ने उनके घर में पुत्र रूप में जन्म लेना स्वीकार किया था।