Edited By Niyati Bhandari,Updated: 29 Jun, 2024 09:42 AM
द्रोणाचार्य भरद्वाज मुनि के पुत्र थे। ये संसार के श्रेष्ठ धनुर्धर थे। महाराज द्रुपद इनके बचपन के मित्र थे। भरद्वाज मुनि के आश्रम में द्रुपद भी द्रोण के साथ ही विद्याध्ययन करते थे। भरद्वाज मुनि के शरीरांत होने के बाद द्रोण वहीं रह कर तपस्या करने लगे।
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The story of Dronacharya: द्रोणाचार्य भरद्वाज मुनि के पुत्र थे। ये संसार के श्रेष्ठ धनुर्धर थे। महाराज द्रुपद इनके बचपन के मित्र थे। भरद्वाज मुनि के आश्रम में द्रुपद भी द्रोण के साथ ही विद्याध्ययन करते थे। भरद्वाज मुनि के शरीरांत होने के बाद द्रोण वहीं रह कर तपस्या करने लगे। वेद-वेदांगों में पारंगत तथा तपस्या के धनी द्रोण का यश थोड़े ही समय में चारों ओर फैल गया। इनका विवाह शरद्वान मुनि की पुत्री तथा कृपाचार्य की बहन कृपी से हुआ। कृपी से द्रोणाचार्य को एक पुत्र हुआ जो बाद में अश्वत्थामा के नाम से अमर हो गया।
उस समय शस्त्रास्त्र-विद्याओं में श्रेष्ठ श्रीपरशुराम जी महेंद्र पर्वत पर तप करते थे। वे दिव्यास्त्रों के ज्ञान के साथ सम्पूर्ण धनुर्वेद ब्राह्मणों को दान करना चाहते थे। यह सुन कर आचार्य द्रोण अपनी शिष्य मंडली के साथ महेंद्र पर्वत पर गए और उन्होंने प्रयोग, रहस्य तथा संहार विधि सहित श्री परशुराम जी से सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रों का ज्ञान प्राप्त किया। अस्त्र-शस्त्र की विद्या में पारंगत होकर द्रोणाचार्य अपने मित्र द्रुपद से मिलने गए। द्रुपद उस समय पांचाल नरेश थे। आचार्य द्रोण ने द्रुपद से कहा, ‘‘राजन! मैं आपका बाल सखा द्रोण हूं। मैं आपसे मिलने के लिए आया हूं।’’
द्रुपद उस समय ऐश्वर्य के मद में चूर थे। उन्होंने द्रोण से कहा, ‘‘तुम मूढ़ हो, पुरानी लड़कपन की बातों को अब तक ढो रहे हो, सच तो यह है कि दरिद्र मनुष्य धनवान का, मूर्ख विद्वान का तथा कायर शूरवीर का मित्र हो ही नहीं सकता।’’ द्रुपद की बातों से अपमानित होकर द्रोणाचार्य वहां से उठ कर हस्तिनापुर की ओर चल दिए।
एक दिन कौरव-पांडव कुमार परस्पर गुल्ली-डंडा खेल रहे थे। अकस्मात उनकी गुल्ली कुएं में गिर गई। आचार्य द्रोण को उधर से जाते हुए देख कर राजकुमारों ने उनसे गुल्ली निकालने की प्रार्थना की। आचार्य द्रोण ने मुट्ठी भर सींक के बाणों से गुल्ली निकाल दी। इसके बाद एक राजकुमार ने अपनी अंगूठी कुएं में डाल दी। आचार्य ने उसी विधि से अंगूठी भी निकाल दी। द्रोणाचार्य के इस अस्त्र कौशल को देखकर राजकुमार आश्चर्यचकित रह गए। राजकुमारों ने कहा, ‘‘ब्राह्मण हम आपको प्रणाम करते हैं। यह अद्भुत अस्त्र कौशल संसार में आपके अतिरिक्त और किसी के पास नहीं है। कृपया आप अपना परिचय देकर हमारी जिज्ञासा शांत करें।’’
द्रोण ने उत्तर दिया, ‘‘मेरे रूप और गुणों की बात तुम लोग भीष्म से कहो। वही तुम्हें हमारा परिचय बताएंगे।’’
राजकुमारों ने जाकर सारी बातें भीष्म से बताईं। भीष्म जी समझ गए कि द्रोणाचार्य के अतिरिक्त यह कोई दूसरा व्यक्ति नहीं है। राजकुमारों के साथ आकर भीष्म ने आचार्य द्रोण का स्वागत किया और उनको आचार्य पद पर प्रतिष्ठित करके राजकुमारों की शिक्षा-दीक्षा का कार्य सौंप दिया। उन्होंने आचार्य के निवास के लिए धन-धान्य से पूर्ण सुंदर भवन की भी व्यवस्था कर दी। आचार्य वहां रहकर शिष्यों को प्रीतिपूर्वक शिक्षा देने लगे। धीरे-धीरे पांडव और कौरव राजकुमार अस्त्र-शस्त्र विद्या में निपुण हो गए। अर्जुन धनुर्विद्या में सबसे अधिक प्रतिभावान निकले। आचार्य के कहने पर उन्होंने द्रुपद को युद्ध में परास्त करके और उन्हें बांध कर गुरु दक्षिणा के रूप में गुरु चरणों में डाल दिया। अत: वे द्रोणाचार्य के अधिक प्रतिभाजन बन गए।
महाभारत के युद्ध में भीष्म के गिरने के बाद द्रोणाचार्य कौरव-सेना के दूसरे सेनापति बनाए गए। वे शरीर से कौरवों के साथ रहते हुए भी हृदय से धर्मात्मा पांडवों की विजय चाहते थे। इन्होंने महाभारत के युद्ध में अद्भुत पराक्रम प्रदर्शित किया। युद्ध में अश्वत्थामा की मृत्यु का समाचार सुनकर इन्होंने शस्त्र का त्याग कर दिया और धृष्टद्युम्र के हाथों वीरगति को प्राप्त हुए।