Edited By Niyati Bhandari,Updated: 19 Mar, 2020 09:30 AM
तत्वज्ञानी जड़ भरत के पिता आङ्गिरस गोत्र के वेदपाठी ब्राह्मण थे। भगवान के अनुग्रह से जड़ भरत को पूर्वजन्म की स्मृति प्राप्त थी। अत: सांसारिक मोहजाल में फंसने के भय से वह बचपन से ही सांसारिक संबंधों से
Follow us on Instagram
तत्वज्ञानी जड़ भरत के पिता आङ्गिरस गोत्र के वेदपाठी ब्राह्मण थे। भगवान के अनुग्रह से जड़ भरत को पूर्वजन्म की स्मृति प्राप्त थी। अत: सांसारिक मोहजाल में फंसने के भय से वह बचपन से ही सांसारिक संबंधों से नि:संग रहा करते थे। उपनयन के योग्य होने पर पिता ने उनका यज्ञोपवीत- संस्कार करवाया और उन्हें शौचाचार की शिक्षा देने लगे।
आचार्य ने उन्हें त्रिपदा गायत्री का अभ्यास कराया, किन्तु वह गायत्री मंत्र का उच्चारण भी न कर सके। जड़ भरत के पिता उन्हें विद्वान देखने की आशा में इस असार संसार से विदा हो गए। पिता के परलोकवास के बाद इनके सौतेले भाइयों ने इन्हें जड़ बुद्धि एवं निकम्मा समझ कर पढ़ाने का आग्रह छोड़ दिया।
लोग जड़ भरत जी को जो भी काम करने को कहते, उसे ये तुरंत कर देते। कभी बेगार में, कभी मजदूरी पर, किसी समय भिक्षा मांग कर जो भी अन्न इन्हें मिल जाता, उसी से ये अपना निर्वाह कर लेते थे। इन्हें यह बोध हो गया था कि स्वयं अनुभव स्वरूप और आनंदस्वरूप आत्मा मैं ही हूं। मान-अपमान, जय-पराजय, सुख-दुख आदि द्वंद्वों से मेरा कोई संबंध नहीं है। इनके शरीर में मलिन कटिवस्त्र और जनेऊ मात्र रहता था। लोग इनका तिरस्कार करते थे।
एक दिन लुटेरों के किसी मुखिया ने संतान की कामना से देवी भद्रकाली को नरबलि देने का संकल्प किया। इस काम के लिए उसके साथियों ने जिस मनुष्य की व्यवस्था की थी, वह मृत्यु भय से उनके चंगुल से छूटकर भाग गया। अचानक उनकी दृष्टि जड़ भरत जी पर पड़ी। वे उन्हें पकड़ कर भद्रकाली के मंदिर में ले गए। जैसे ही मुखिया ने उन्हें मारने के लिए अभिमंत्रित खड्ग उठाया, वैसे ही भद्रकाली ने मूर्ति से प्रकट होकर उन सभी दुष्टों को मार डाला और जड़ भरत की रक्षा की।
एक दिन की बात है कि सौवीर- नरेश राजा रहूगण तत्वज्ञान प्राप्त करने की इच्छा से कपिल मुनि के आश्रम पर जा रहे थे। इक्षुमती नदी के तट पर पहुंचने पर उनकी पालकी का एक कहार बीमार पड़ गया। दैव योग से वहीं महात्मा जड़ भरत भ्रमण कर रहे थे। कहारों ने उन्हें हृष्ट-पुष्ट शरीर वाला देख कर पालकी ढोने के लिए उपयुक्त समझा। अत: अपने साथ पालकी ढोने के लिए उनको जबरन लगा लिया।
जीव-हिंसा के भय से जड़ भरत जी रास्ता देखते हुए धीरे-धीरे चलते थे। इसलिए इनकी गति जब पालकी उठाने वाले कहारों के साथ एक जैसी नहीं हुई, तब पालकी टेढ़ी होने लगी। इस पर राजा ने पालकी के कहारों को डांटते हुए ठीक से चलने के लिए कहा। कहारों ने कहा, ‘‘हम लोग ठीक से चल रहे हैं। यह नया आदमी ठीक से नहीं चल रहा है। इसलिए पालकी टेढ़ी हो जा रही है।’’
राजा रहूगण जड़ भरत के वास्तविक स्वरूप से अनभिज्ञ होने के कारण उन्हें बुरा-भला कहने लगे। जड़ भरत जी राजा की बातों को शांत होकर सुनते रहे और अंत में उन्होंने उसकी बातों का बड़ा ही सुंदर उत्तर दिया। राजा रहूगण में श्रद्धा तो थी ही, वह समझ गया कि ये छद्मवेष में कोई महात्मा हैं। अत: वह पालकी से उतर गया और अपने अविनय के लिए जड़ भरत जी से क्षमा मांगने लगा। अंत में महात्मा जड़ भरत जी ने तत्वज्ञान का बहुमूल्य उपदेश देकर राजा रहूगण को निहाल कर दिया।