जानें, किसके नाम पर पड़ा हमारे देश का नाम भारत

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 14 Dec, 2019 07:46 AM

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महाभागवत राजर्षि प्रियव्रत के वंश में नाभि नामक एक परम प्रतापी तथा धार्मिक राजा हुए। उनका विवाह मेरु की पुत्री मेरु देवी के साथ हुआ। बहुत दिनों तक उनके कोई संतान नहीं हुई। उन्होंने पुत्र कामना से अपनी पत्नी के साथ

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महाभागवत राजर्षि प्रियव्रत के वंश में नाभि नामक एक परम प्रतापी तथा धार्मिक राजा हुए। उनका विवाह मेरु की पुत्री मेरु देवी के साथ हुआ। बहुत दिनों तक उनके कोई संतान नहीं हुई। उन्होंने पुत्र कामना से अपनी पत्नी के साथ श्रद्धा-भक्ति से भगवान यज्ञ पुरुष का पूजन किया। उनकी आराधना से प्रसन्न होकर भगवान उनके सामने प्रकट हुए। भगवान का दर्शन प्राप्त करके ऋत्विजों सहित महाराज नाभि ने उनकी स्तुति की। ऋत्विज बोले, ‘‘प्रभो! राजर्षि नाभि आप ही जैसे पुत्र-कामना से आपकी प्रसन्नता के लिए यज्ञ कर रहे हैं। अत: आपको इनकी कामना पूर्ण करनी चाहिए।’’

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भगवान बोले, ‘‘ऋषियो! मेरे समान दूसरा कोई हो नहीं सकता। अत: आप लोगों की बात रखने के लिए मैं स्वयं ही मेरु देवी के माध्यम से अपने अंश रूप में अवतार ग्रहण करूंगा।’’

यह कहकर भगवान अन्तर्धान हो गए। समय आने पर महाराज नाभि के यहां एक दिव्य बालक का जन्म हुआ। उसके चरणों में वज्र, अंकुश आदि के चिन्ह प्रकट होते ही दिखाई देने लगे। बालक के अनुपम सौन्दर्य को जो भी देखता वही मोहित हो जाता था। बालक के जन्म के साथ ही महाराज नाभि के राज्य में सम्पूर्ण ऐश्वर्य उपस्थित हो गए। पिता ने उस अनुपम बालक का नाम ऋषभ (श्रेष्ठ) रखा। महाराज नाभि के राज्य में अतुल ऐश्वर्य को देखकर इन्द्र को बड़ी ईर्ष्या हुई। 

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उन्होंने इनके राज्य में वर्षा बंद कर दी। भगवान ऋषभ देव ने अपनी योग माया के प्रभाव से इन्द्र के प्रयत्न को निष्फल कर दिया और इन्द्र ने उनसे अपनी भूल के लिए क्षमा मांगी। भगवान ऋषभ देव को विद्याध्ययन के लिए गुरुगृह भेजा गया और यह थोड़े ही काल में सभी विद्याओं में निपुण होकर घर लौट आए। इनका विवाह इन्द्र की कन्या जयन्ती से हुआ। पुत्र को हर प्रकार से योग्य जानकर महाराज नाभि भगवान ऋषभ देव को राज सिंहासन पर बैठाकर तपस्या के लिए बद्रिकाश्रम चले गए। जयन्ती के द्वारा भगवान ऋषभ देव के सौ पुत्र हुए। उनमें सबसे बड़े पुत्र का नाम ‘भरत’ था। उसी के नाम पर हमारे देश का नाम भारतवर्ष प्रसिद्ध हुआ।

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भगवान ऋषभ देव साक्षात अपने स्वरूपानुभव में निमग्र होने के कारण रागादि दोषों से रहित, प्राणिमात्र के हित में तत्पर तथा स्वभाव से सबके ऊपर दया करने वाले थे। यद्यपि वह स्वयं धर्म के रहस्य के ज्ञाता थे, तथापि वह लोक संग्रह के लिए ब्राह्मणों के आदेशानुसार उनसे पूछकर शास्त्रोक्त कर्मों का सम्पादन करते थे। उन्होंने अपने जीवनकाल में सौ अश्वमेध यज्ञ किए। उनके राज्य में सभी लोग फल की आशा त्याग कर केवल भगवान की प्रसन्नता के लिए ही कर्म करते थे। भगवान ऋषभ देव ने समस्त प्रजा के सामने अपने पुत्रों को मोक्ष धर्म का अति सुन्दर उपदेश दिया और कहा, ‘‘ तुम लोग निष्कपट बुद्धि से अपने बड़े भाई भरत की सेवा करो। इससे मेरी ही सेवा होगी।’’

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तदनन्तर भगवान ऋषभदेव अपने बड़े पुत्र भरत को राज्य भार सौंपकर दिगम्बर वेष में वन को चले गए और संसार को परमहंसों के आचरण की शिक्षा देते हुए उन्होंने कालान्तर में अपने शरीर को जंगल की आग में भस्म करके अपनी लौकिक लीला का अंत किया। यही भगवान ऋषभदेव जैनियों के आदि तीर्थकर भी माने जाते हैं।

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