Edited By Niyati Bhandari,Updated: 24 Nov, 2023 07:16 AM
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जालंधर का नाम पराक्रमी एवं बलवान दैत्य राजा जालंधर के नाम से पड़ा क्योंकि इनकी राजधानी का नाम जालंधर था। जालंधर का जन्म समुद्र मंथन के समय
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Vrinda Tulsi story: जालंधर का नाम पराक्रमी एवं बलवान दैत्य राजा जालंधर के नाम से पड़ा क्योंकि इनकी राजधानी का नाम जालंधर था। जालंधर का जन्म समुद्र मंथन के समय हुआ था मगर श्रीमद् देवी भागवत पुराण में वर्णित है कि भगवान शिव ने अपने तेज को समुद्र में फेंक दिया जिससे महातेजस्वी शिशु का जन्म हुआ। यह शिशु आगे चलकर जालंधर के नाम से पराक्रमी एवं बलवान दैत्य राजा बना। दैत्यों के राजा कालनेमि की कन्या वृंदा का विवाह जालंधर से हुआ।
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जालंधर राक्षसी प्रवृत्ति का राजा था मगर उसकी पत्नी वृंदा महान पतिव्रता स्त्री थी। पतिव्रता स्त्री यानि पति के लिए हर तरह से समर्पित और सेवा का भाव रखने वाली। उसके पतिव्रत धर्म के बल पर ही जालंधर में असीम शक्तियां समाहित थी। जिसे वो स्वयं को अजर-अमर समझने लगा था और अपनी कुदृष्टि माता लक्ष्मी एवं माता पार्वती पर गाढ़े बैठा था।
माता लक्ष्मी का जन्म भी समुद्र मंथन के समय हुआ था इसलिए उन्होंने राक्षस जालंधर को अपना भाई स्वीकार किया। माता पार्वती को पाने की लालसा में जब वह कैलाश पर्वत पर गया तो माता पार्वती वहां से लुप्त हो गई। भगवान शिव को जब जालंधर के आने का प्रयोजन ज्ञात हुआ तो दोनों में भयंकर युद्ध होने लगा।
माता पार्वती ने भगवान विष्णु को जालंधर की बुरी नियत के बारे में अवगत करवाया। श्री विष्णु ने पार्वती जी को बताया, जब तक जालंधर के साथ उसकी पत्नी का पतिव्रत धर्म है उसे पराजित करना असंभव है।
जालंधर को पराजित करने के लिए भगवान विष्णु ने वृंदा का सतीत्व भंग करने का विचार किया। उन्होंने संत का रूप धरा और वन में उसी स्थान पर जाकर बैठ गए जहां वृंदा अकेली घूम-फिर रही थी। भगवान विष्णु ने अपनी योजना को अंजाम देना आरंभ किया। उन्होंने वृंदा के पास अपने दो मायावी राक्षस भेजे जिन्हें अपने समीप आता देखकर वृंदा डर गईं।
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संत बने भगवान विष्णु ने वृंदा पर अपना प्रभाव बनाने के लिए दोनों मायावीयों को भस्म कर डाला। उनकी शक्ति से वृंदा बहुत प्रभावित हुई। उसके मन में अपने पति जालंधर के विषय में जानने की उत्सुकता हुई। उसने संत से कहा, मेरे पति कैलाश पर्वत पर भगवान शिव के साथ युद्ध कर रहे हैं। वह कुशल पूर्वक तो हैं।
संत ने अपनी माया से दो बंदर प्रकट किए। एक बंदर के हाथ में जालंधर का सिर था तथा दूसरे के हाथ में धड़। अपने पति का यह रूप देखकर वृंदा बेहोश होकर गिर गई। संत उसे होश में लाए तो उन्होंने संत रूपी भगवान विष्णु से प्रार्थना की कि वह उसके पति को जीवन दान दें। भगवान ने उसकी प्रार्थना मान अपनी माया से पुन जालंधर का सिर धड़ से जोड़ दिया और स्वयं भी वह उसी शरीर में प्रवेश कर गए।
अत: भगवान विष्णु ने जालंधर का रूप धर कर वृंदा का पतिव्रत धर्म भंग कर दिया। वृंदा का पतिव्रत धर्म भंग होते ही जालंधर युद्ध में पराजित हुआ। जब वृंदा को भगवान विष्णु के छल का ज्ञात हुआ तो उन्होंने भगवान को शिला होने का श्राप दे दिया और स्वयं भस्म हो गई। जिस स्थान पर वह भस्म हुई उस स्थान पर तुलसी के पौधे का जन्म हुआ।
भगवान विष्णु ने तुलसी रूपी वृंदा को वरदान दिया की तुम मुझे श्री लक्ष्मी जी से भी अत्यधिक प्यारी हो और तुम सदैव मेरे साथ रहोगी। तुम्हारे अभाव में न तो मेरा कोई भोग पूर्ण होगा और न ही पूजा। उसी स्थान पर सती वृंदा का मंदिर बन गया जो वर्तमान में मोहल्ला कोट किशनचंद जालंधर में स्थित है।
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