Edited By Niyati Bhandari,Updated: 18 Dec, 2023 10:03 AM
गुरु के प्रति श्रद्धा न रखने वाले शिष्य का कल्याण नहीं होता। ऋषि वेदव्यास के पुत्र सुखदेव जब जनक जी के पास पहुंचे तो उन्हें द्वार पर ही प्रतीक्षा करने को कहा गया। कुछ दिन बाद राजा जनक ने उन्हें महल में बुलवाया।
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Sukhdev Muni and King Janak: गुरु के प्रति श्रद्धा न रखने वाले शिष्य का कल्याण नहीं होता। ऋषि वेदव्यास के पुत्र सुखदेव जब जनक जी के पास पहुंचे तो उन्हें द्वार पर ही प्रतीक्षा करने को कहा गया। कुछ दिन बाद राजा जनक ने उन्हें महल में बुलवाया।
वह अपने शिष्य के मन का मैल धोना चाहते थे। सुखदेव ने देखा कि महाराज जनक का एक पांव अग्निकुंड में धरा है तथा दूसरा दासियां दबा रही हैं। तभी महल में आग लगने की सूचना मिली। जनक ने कहा हरि इच्छा।
द्वारपाल ने कहा कि महाराज आग तो कक्ष तक आ पहुंची। राजा जनक शांत भाव से बैठे रहे। सुखदेव ने सोचा बुद्धिहीन राजा अपने वैभव और संपदा को बचाने का प्रयास तक नहीं कर रहा। मैं तो अपनी जान बचाऊं। ज्यों ही सुखदेव भागने लगे। चारों ओर लगी आग शांत हो गई। राजा जनक बोले, ‘‘तुम मुझे भोगी कहते हो। मेरा तो सब कुछ स्वाहा हो गया। मैंने परवाह नहीं की किन्तु तुमसे इस झोले कमंडल का मोह तक नहीं छोड़ा गया। अब बता त्यागी कौन है?’’
सुखदेव का मोह भंग हुआ। गुरु के कौतुक ने ज्ञान चक्षु खोल दिए। सुखदेव गुरु से दीक्षा लेकर घर पहुंचे तो पिता ने पूछा, ‘‘गुरु कैसे हैं? क्या वह सच के समान तेजस्वी हैं?’’
‘‘नहीं, पिता श्री। उनमें तो आग है।’’
‘‘तो क्या चंद्रमा के समान है?’’
‘‘न चंद्रमा में भी दाग है।’’
‘‘तो गुरु दिखने में कैसे हैं?’’
‘‘वह किसी के जैसे नहीं है। गुरु तो केवल गुरु हैं। उनके समान कोई नहीं है।’’
पिता जान गए कि गुरु ने शिष्य के अहंकार का पर्दा गिरा दिया है।